आदरणीय साथिओ,
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खबर
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"माँ... चिट्ठी आई है...", बेटे के हाथ से चिट्ठी ले कर उसने अंड़ोसे में ठूंसी और खेतों की ओर निकल पड़ी थी।
सुबह पहाड़ी झरने से पानी भरकर लाने के समय ही सास ने सूचना दी थी घर में लकड़ी खत्म है, आते बखत लेती आना। ढोर डंगरों के लिए घास भी लानी थी।
"उफ्फ ये कमर दर्द आजकल प्राण ले लेता है।" कुल्हाड़ी ,और लकड़ी बांधने की रस्सी के साथ उसने एक रस्सी कमर पर बांधने के लिए भी ले ली थी। कुछ तो आराम मिलेगा।
"खाने को कभी जुआर की सूखी रोटी तो कभी मड़वे का चावल बस यही, और काम कितना, बूढ़े सास ससुर, ढोर डंगर, खेत जिनमें कुछ उपजे ही नहीं, झरने का पानी लाना, दोनों छोटे बच्चे, लाली तो अभी गोदी में ही है, बदन चले तो कैसे , हाड़ हाड़ चिटक जाता है..."
"जंगल में आजकल आदमखोर घूम रहा है जल्दी आ जाना।" सास ने सुबह घर से निकलते समय खबर दी थी।
"उफ्फ ये कमर दर्द..." अब चला नहीं जा रहा था। घर भी जल्दी जाना था। टीले पर बैठ कर उसने चिट्ठी निकाली। जरूर सिपाहिड़े के घर आने की चिट्ठी होगी। साल में एक बार छुट्टी मिलने पर फौजी घर आता था। जो चिट्ठी कभी प्यार का संदेशा लेकर आती थी दो तीन सालों से उसे दहला जाती थी।वह साल भर का भूखा प्यासा घर आता था।
"उफ्फ ये कमर का दर्द.." डर से दहल गई वह।
"इस बार छुट्टियां खारिज हो गई हैं।किसी जगह बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में एक्सट्रा ड्यूटी का फरमान आया है। अबकी बार घर नहीं आ पाऊंगा।"
लकड़ियां उठा डूबते सूरज के साथ उसने दुखती कमर पर हाथ रख धीरे धीरे आराम के साथ घर की ओर कदम बढ़ाए। कुछ देर भी हो जाएगी तो चलेगा। अब उसे आदमखोर का डर नहीं सता रहा था।
मौलिक व अप्रकाशित
बढिया कथा, स्त्री की विकट परिस्थितियों को उजागर करती कथा के लिए हार्दिक बधाई कनक हरलालका जी
त्वरित प्रतिक्रिया एंव प्रोत्साहनात्मक समीक्षा के लिए हार्दिक आभार अर्चना जी ।
बहुत बढ़िया.
पति से एक साल बाद मिलने की चाह भी जिम्मेदारियों के बोझ में बोझिल हो गई. एक संवेदनशील विषय का बहुत शालीन प्रस्तुतीकरण
कथा पर समय देने एंव पसन्द करने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय अजय गुप्ता जी ।
जो चिट्ठी कभी प्यार का संदेशा लेकर आती थी दो तीन सालों से उसे दहला जाती थी।वह साल भर का भूखा प्यासा घर आता था।
"उफ्फ ये कमर का दर्द.." डर से दहल गई वह।// वाह .. घर की जंग में जूझती सिपाही की पत्नी की व्यथा खूब उकेरी है आपने आदमखोर का प्रतीक भी सटीक है ,,,हार्दिक बधाई आपको इस उत्कृष्ट सृजन पर आदरणीया कनक जी
कथा की प्रोत्साहनात्मक समीक्षा के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीया प्रभा पाण्डेय जी ।
बढ़िया प्रस्तुति। हार्दिक बधाई आदरणीया कनक हरलल्का जी।
शुक्रिया आदरणीय उस्मानी साहब ।
बेहतरीन प्रस्तुति,घर और बाहर की जिम्मेदारीयों से जूझती स्त्री,पति के ना आने की खबर पढ अब उसे आदमखोर से डर नही लगता,अंतर्मन की व्यथा को बहुत सटीक शब्दों में प्रस्तुत किया हैं.प्रकाशित रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीया दी.
प्रोत्साहनात्मक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार आदरणीया बबीता गुप्ता जी।
स्त्रियों की विकट स्थिति पर बढ़िया लघुकथा कही है आपने आदरणीया कनक हरलालका जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए.
1. //किसी जगह बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में एक्सट्रा ड्यूटी का फरमान आया है। अबकी बार घर नहीं आ पाऊंगा।// "बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में एक्सट्रा ड्यूटी का फरमान आया है। इसलिए अबकी भी घर नहीं आ पाऊंगा।"
2. //लकड़ियां उठा डूबते सूरज के साथ उसने दुखती कमर पर हाथ रख धीरे धीरे आराम के साथ घर की ओर कदम बढ़ाए।// "डूबते सूरज के साथ उसने लकड़ियों को उठाया और अपनी दुखती कमर पर हाथ रख कर घर की ओर चल दी."
3. चूँकि पूरी कथा महिला के पति की चिट्ठी के इर्द-गिर्द है, इसलिए मुझे लगता है की दोनों के बीच (अथवा केवल पत्नी) के प्रेम को थोड़ा और उभारा जाना चाहिए था.
सादर.
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