आदरणीय साथिओ,
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आदरणीया कल्पना जी, एक डायरी के माध्यम से पात्र के बचपन से युवावस्था तक की पीड़ा को शाब्दिक करती यह कथा आधुनिक जीवन पद्धति की विसंगतियों और विद्रूपताओं को भी रेखांकित करती हैं. प्रदत्त विषय को सार्थक करती इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार करें. सादर
सादर धन्यवाद आदरणीय मिथिलेश जी|
बढ़िया शीर्षक और शानदार रचना। हार्दिक बधाई प्रेषित है आदरणीया कल्पना जी
सादर धन्यवाद आदरणीय प्रतिभा दी|
आ. कल्पना बहन, अच्छी कथा हुयी है । हार्दिक बधाई ।
धन्यवाद आदरणीय लक्ष्मण धामी जी|
प्रदत्त विषय पर अच्छी लघुकथा हुई है आदरणीया कल्पना जी. शीर्षक विशेष तौर से पसन्द आया. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
दिल की आवाज
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"सुनो, अम्मा बहुत नाराज हैं।"
"हां हमने भी तो स्वार्थवश उन्हें बहुत दुःख पंहुचाया है। यह तो भला हुआ कि मेरे बहुत अनुरोध करने पर वे वृद्धाश्रम से तुम्हारी जचगी के लिए घर आने पर तैयार हो गईं।"
"हाँ..., पर नाराज तो वे हैं ही न। माना कि हमसे गलती हो गई पर वे तो कुछ बोलती भी नहीं हैं। बस चुपचाप जितनी जरूरत हो उतना काम कर देती हैं।"
"मुनुवा को तो खिलाती हैं न।"
"नहीं, मुनुवा की तरफ तो नजर उठा कर भी नहीं देखतीं। कल पड़ोस वाली आंटी से बात कर रही थीं तो मैंने सुना कह रहीं थीं कि मैं तो बस कामवाली हूँ, मेरा उनका कोई नाता नहीं है।"
"अरे माँ हैं, गुस्सा हैं, देखना एक दिन मान ही जाएंगी...।"
तभी बच्चे ने रोना शुरू कर दिया।
"अरे.. लड़का कितनी देर से रो रहा है...। कहाँ है उसके माँ बाप...? मुझे क्या..? जब माँ को ही परवाह नहीं है तो मुझे क्या मतलब...।
ओह....।। कितनी देर से कितनी बुरी तरह रो रहा है। पता नहीं उसकी माँ कहां गई होगी..।।"
अब वे अधिक नहीं रुक सकीं। आगे बढ़ कर बच्चे को गोद मे उठा ही लिया,
"अरे रे रे..चुप...चुप.. रोते नहीं...। वैसे तू भी अपने बाप की तरह ही रोता है...चुप हो जा...। वो भी छोटा था तो ऐसे ही रोता था...।बड़े हो कर भी अपने बाप की तरह ही निकलना... उन्हें भी वृद्धाश्रम में छोड़ आना...। चुप..चुप..।।"
उधर परदे के पीछे बेटे बहू चुपचाप शर्मिंदा से मुस्कुरा उठे।
मौलिक व अप्रकाशित
आदरणीय कनक हरलालका जी बहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति और नसीहत आमेज़ भी बहुत बधाई आपको सादर
हौसला
आदाब। हमारा समाज कितना भी आधुनिक क्यों न हो जाये। ज़माने और परिवार के साथ समस्याओं के समाधान में हमारे बुज़ुर्ग समाधान बनकर ही उभरते हैं। बढ़िया रचना। हार्दिक बधाई आदरणीया कनक हरलाल्का साहिबा। शुरू के सात संवादों के बाद इंवर्टेड कौमाज़ नहीं लगे हैं। आपसे नवीनतम बेहतर रचनायें भी अपेक्षित हैं।
हार्दिक आभार आदरणीय उस्मानी साहब।बाद वाले संवाद एक साथ एक ही व्यक्ति द्वारा कहे गए हैं अतः उन्हें एक साथ ही रखा गया है ।
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