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आदरणीय सौरभ सर, यह लघुकथा जब से प्रस्तुत हुई है इसे कई बार पढ़ चुका हूँ. भृगु का रूपक लेकर आपने जो लघुकथा कही है वह वेदांत और कर्मयोग से गुजरती हुई आनंद की वास्तविक परिभाषा को जैसे स्थापित करती है वह अद्भुत है. लघुकथा का आरम्भ ही बताता है कि यह किस दिशा और स्तर की लघुकथा है.
//"जीवन का सत्य क्या है, पिताजी ?"
"तुम बताओ.. क्या है ?"
"मैं तो पूछ रहा हूँ न !.."
"कुछ पूछने से पहले क्या ये नहीं बताओगे कि तुम ऐसे प्रश्नों के उत्तर के लिए सही पात्र हो ?"//
जब बालक नरेंद्र स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास गए और जीवन का सत्य पूछा तो परमहंस ने यही प्रश्न किया था कि तुम ऐसे प्रश्नों के उत्तर के लिए सही पात्र हो ? या जब कोई गौतम बुद्ध से प्रश्न करता तो वे तीन बार प्रश्न करते थे ताकि स्पष्ट हो सके कि प्रश्न करने वाला वाकई उत्तर जानना चाहता है और उत्तर के लिए सही पात्र है. संभवतः यही कारण है कि बौद्ध ग्रंथों में प्रश्न और उत्तर तीन तीन बार किये जाते है. लघुकथा की प्रथम पंक्ति में ही मैं चकित हो गया. लगा जैसे यही एक लघुकथा हो गई. लेकिन आगे लघुकथा की प्रत्येक पंक्ति पढ़ते हुए बस चकित होता रहा हूँ.
भृगु ने जब जीवन का सत्य सफलता है, आनंद है यह उत्तर कितना सीमित है , यह तो भृगु समझ गया किन्तु संतोष और तृप्ति जैसे उत्तर भी जब निरर्थक निकले तो भृगु कर्म की ओर प्रवृत्त हुआ और कर्मयोग से सफलता, कार्यशीलता से आनंद जैसे बाई प्रोडक्ट की वास्तविकता और तत्त्व की परिभाषा का बोध हुआ. भृगु जब कर्म योगी बनकर निष्काम कर्म करने के लिए प्रवृत्त हुआ तो पिता भाव विभोर हो गए. जिस तरह से पौराणिक पात्र का रूपक लेकर आपने लघुकथा जैसी विधा में कर्मयोग के दर्शन को शाब्दिक किया है वह अद्भुत है. इस अद्भुत लघुकथा के लिए नमन आपको. सादर
यह अवश्य है, आदरणीय मिथिलेशभाई, कि कुछ विन्दु और उनका आशय सहज जीवन से साक्षात आते नहीं दिखते. लेकिन रूपक, जैसा कि आपने कहा भी है, किसी तथ्य को अपने हिसाब से प्रस्तुत किया करता है.
आपको यह प्रस्तुति अंतर्निहित भावों के कारण रुचिकर लगी यह मेरे लिए भी तोषकारी है.
इस प्रस्तुति के होने में आत्मतोष अपनी जगह, विधा को एक आकार मिलने की प्रसन्नता भी है. लेकिन यह भी उतना ही सही है कि लघुकथा और लघु कहानी में जो अंतर हुआ करता है वह ऐसी प्रस्तुतियों में ही चौखट पाता है. या, यह भी सही है कि ऐसी प्रस्तुतियाँ वस्तुतः थेरेशोल्ड (चौखट) पर ही हुआ करती है.
लेकिन मुझे अहसास है कि लगाम कब खींचना है ताकि लघुकथा किसी लघुकहानी में न बदल जाये. यदि कभी भूल हुई भी तो आप सब हैं इस मंच पर जो किसी भटकाव को इग्नोर नहीं करते.
इस विन्दु पर आदरणीय योगराजभाईसाहब से भी अपेक्षा और अनुरोध रहेगा कि वे सार्थक चर्चा करें.
सादर
आदरणीय सौरभ सर, मेरे कहे के अनुमोदन हेतु हार्दिक आभार. इस लघुकथा पर पहली प्रतिक्रिया आदरणीय योगराज सर द्वारा ही की गई है, एक सटीक प्रतिक्रिया के बाद ही रचना के मर्म को आत्मसात करने और रचना का आनंद लेने की शुरुआत हुई है. आदरणीया राजेश दीदी ने सही कहा है कि मुझ जैसे पाठक की परीक्षा भी थी. एक अच्छा पाठक बनना भी एक कला है. लघुकथा और लघुकहानी के बीच के सूक्ष्म अंतर पर मार्गदर्शन मेरे लिए आवश्यक है.
इस रचना से फिलहाल में मुग्ध हूँ इसलिए उस सीमा या अंतर की दृष्टि से इस पर विचार नहीं कर सकता हूँ. आपके आदरणीय योगराज सर से की गई अपेक्षा और अनुरोध में अपना भी निवेदन सम्मिलित करता हूँ. और यह भी कि वेदांत से कथानक निकलकर एक सशक्त लघुकथा का उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए हार्दिक आभारी हूँ. सादर
//वेदांत से कथानक निकलकर एक सशक्त लघुकथा का उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए हार्दिक आभारी हूँ //
यह कसौटी अधिक प्रभावी थी मेरे लिए, साथ ही कथाकर्म लालसा, आदरणीय मिथिलेशभाई. तभी रचनाकर्म हेतु प्रवृत हो पाया.
अनुमोदन हेतु हार्दिक धन्यवाद
"समाज के सर्वसमावेशी स्वरूप को समझने का प्रयास आनन्द की परिभाषा का मूल है,पिताजी | " इसे समझने के लिए और उसकी पुष्टि (प्रमाणीकरण) के लिए काफी समय सलंग्न रह निष्कर्ष निकाला की "सफलता तो इसका अनुफलन मात्र है पिताजी, एक बाइ-प्रोडक्ट ! मुख्य है तत्त्व की परिभाषा का बोध.. " | - यह सुंदर और सार्थक लघु कथा के साथ ही भृगु पात्र होने के कारण बोध कथा ही लग रही है - जब यह सन्देश भी समाविष्ट है की -""कर्म.. क्रियाशीलता.. वस्तुतः आनन्द कार्य-प्रक्रिया में है.."
इस सारगर्भित, और सार्थक सीख देती लघु कथा के लिए ह्रदय से बहुत बहुत बधाई आदरणीय श्री सौरभ भाई जी | सादर
प्रस्तुति को अपनी समझ और समय देने केलिए आपका हार्दिक धन्यवाद आदरणीय लक्ष्मण प्रसादजी.
सादर
यह लघुकथा इस बात का द्योतक है कि इंसान दौलत से सिर्फ भौतिक सुख प्राप्त कर सकता है आत्मिक सुख नहीं
सुंदर सन्देश देती लघुकथा
वाह आदरणीय ज्योत्सना जी बहुत ही प्रभावशाली ढंग से आपने प्रदत्त विषय को छुआ है। /मैं यहाँ एकाकी बैठा हूँ.... और मेरा परिवार अपने-अपने सुखों की तलाश में है/ इस अंदर की टीस को मैं महसूस कर पा रहा हूं । वाकई अर्थप्रधान व्यवस्था में मानवीय संवेदनाएं गौण हो गईं है। कथा की कसावट व शीर्षक बहुत ही प्रभावोपादक बनें है। सादर शुभकामनाएं
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