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ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा अंक 51 में शामिल सभी गज़लों का संकलन (चिन्हित मिसरों के साथ)

सम्माननीय साथियों,

इक्यावनवें मुशायरे का संकलन हाज़िर कर रहा हूँ| मिसरों में दो रंग भरे गए हैं, लाल रंग अर्थात बेबहर मिसरे और नीला रंग अर्थात दोषयुक्त मिसरे|

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गिरिराज भंडारी 


जो जानते थे सच, सभी अनजान बन गए
क़ातिल इसी लिए यहाँ भगवान बन गए

बह बह के शक्ल आंसुओं की नज़्म सी हुई
इक साथ अश्क़ जब हुए दीवान बन गए


जो जो ख़ुलूस के लिए अस्बाब थे बने
अफसोस सारे मौत के सामान बन गए


तू साथ था तो रौनकें थोड़ी ज़रूर थीं
लेकिन तेरे बग़ैर क्या बेजान बन गए ?


अन्दर की भीड़ ने कभी हल्ला किया बहुत
बदली जो सोच, शह्रें भी वीरान बन गए


बेमोल चीज़ लूटने आये थे यार सब
हम जानते रहे सदा, नादान बन गए


ये कैसी मेजबानी की है मुल्क ने यहाँ
अपने ही मुल्क में हमीं महमान बन गए


ता फिर न हौसले को कहीं जा बचे नहीं
साहिल के आसपास ही तूफ़ान बन गए
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भुवन निस्तेज


करके गुनाह देखो वो अनजान बन गये
मूरत बने हैं जैसे की भगवान बन गये


क्या क्या थे वो न जाने जो इंसान बन गये
बाज़ार का तिलिस्म था सामान बन गये


मेरे ख़ुशी का क़त्ल करके आप तो हुजूर
अनजान बन गए हैं व नादान बन गये


शोलों में झोंक दे दुनिया को दिखाओ गर
जो मोम से तुम्हारे अरमान बन गये


मझधार में न डूब सकी मेरी नाव तो
“साहिल के आसपास ही तूफान बन गये”


इस आईने से यारी में क्या-क्या है हो गया
हम तो यहाँ पे गैर की पहचान बन गये


पी आज रक्त मेरा वो उपदेश दे रहा
किरदार आजकल बड़े आसान बन गये


फूलों को छोड़कर अभी बारूद सूंघना
इंसान को हुवा क्या ये शैतान बन गये


‘निस्तेज’ हम-सफ़र से हुवा है जो सामना
परबत सरीखे ख्वाब थे मैदान बन गये
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laxman dhami 

जयचंद, जब से देश में चैहान बन गए
मुलजिम जो थे वतन के वो कप्तान बन गए /1

वैसे हवस को रोज वो हैवान बन गए
आई सजा की बात तो नादान बन गए /2

खबरों के सच तो रोज ही ऐलान बन गए
बेजान जो बयान थे उन्वान बन गए /3

दरवान आज चोर के ऐवान बन गए
वो ही हमारे शह्र की पहचान बन गए /4

देखा है आज हमने भी बाजार का असर
मंदिर में देवता ही जो दरवान बन गए /5

फेंका जिसे था खाक में अरजान सोच कर
उठकर वो आज खाक से ख़ाकान बन गए /6

पा ही गये थे पार वो मॅझधार से मगर
साहिल के आस पास ही तूफान बन गए /7

कह कर गये थे आप जो दो बोल प्यार के
हमको तो जिंदगी में वो अरकान बन गए /8
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Dr Ashutosh Mishra 


माँ बाप क्या बुढापे में सामान बन गये
सुनकर सवाल बच्चे ये नादान बन गये


गीता कुरान समझी नहीं नस्लें आज की
रामो रहीम हिन्दू मुसलमान बन गये


उस देश में अब भूख से मरते हैं नौनिहाल
पाहन भी जिस वतन में हैं भगवान् बन गये


तिरक्षी नजर से देख वो जब मुस्कुरा दिए
उल्फत के रास्ते मेरे आसान बन गये


किस्मत का खेल देख लो कैसा ग़ज़ब का है
साहिल के आसपास ही तूफ़ान बन गये


अनजान रास्तों पे चले बन के हमसफ़र
महफ़िल में आज हमसे जो अनजान बन गये


सिरमौर था जो देश मेरा सारे विश्व का
अब झोपड़े गरीब ही पहचान बन गये


क्षमता को अपनी कोई भी पहचानता नहीं
जिसने समझ लिया है वो हनुमान बन गये


मिलते बिछड़ते लड़ते झगड़ते गुलों के साथ
कितने हसींन दिल में हैं अरमान बन गये


जो स्वेद कण मिलाये थे माली ने धरती में
वो ही चमन में कलियों कि मुस्कान बन गये


भटका दिया है हंसों को दाने बिखेरकर
कौवे ही इस वतन का हैं सम्मान बन गए
______________________________________________________________________________
Dayaram Methani 


कुछ लोग नाम दाम की पहचान बन गए
इन्सान थे कभी अब शैतान बन गए।


पागल रहे सदा जिसके प्यार की खातिर,
वो आज जान कर भी अनजान बन गए।


बेकार ही चले गये उनकी महफिल में,
जाकर लगा कि हम वहां नादान बन गए।


मंजिल तो सामने थी सदा मेरी नजराें के,
साहिल के आस पास ही तूफान बन गए।


किस्मत से वो मिली जिसकी थी चाहत सदा,
बेटी ने जन्म लिया हम धनवान बन गए।
____________________________________________________________________________-
कल्पना रामानी 


हम सेवा-मुक्त होते ही क्या-क्या न बन गए।
अपने ही घर के द्वार के दरबान बन गए।


पूँजी लुटा दी प्यार में, कल तक जुटाई जो,
कोने में अब पड़े हुए सामान बन गए।


बरगद थे छाँव वाले कि वे आँधियाँ चलीं
छोड़ा जड़ों ने साथ यों, बेजान बन गए।


सोचा तो था कि दोस्त सभी होंगे आस-पास
पर जानते थे जो, वे भी अंजान बन गए।


होके पराया चल दिया, अपना ही साया भी,
तन्हाइयों में घुल चुकी, पहचान बन गए।


मझधार से तो जूझके आए थे हम मगर,
“साहिल के आसपास ही, तूफान बन गए”।


मन में तो है सवाल ये भी ‘कल्पना’ अहम
हम जानते हुए भी क्यों, अंजान बन गए।
_____________________________________________________________________
Amit Kumar "Amit" 


अपनों को लूट - लूट के धनवान बन गए I
पकड़ी गई जो चोरी तो अन्जान बन गए II१II

कैसी दिलों में आज ये दीवार बन गई I
घर-घर नहीं रहे हैं अब-मकान बन गए II२II

जंगल बने हुए थे जो राज़ों के आज तक
बतला के अपने दर्द को मैदान बन गए II३II

मुश्किल है बहुत पर ये असम्भव नहीं सुनो I
पत्थर भी आप देखिए भगवान बन गए II४II

मम्मी के प्यार ने हमें जीना सिखा दिया I
पापा की मार खाके ही इन्सान बन गए II५II

परदेश से जब बहु-बेटा आए अपने घर I
पथराई खुश्क आँखों की मुस्कान बन गए II६II

अब वृद्धाश्रम से आते हैं सालों में एक दफा I
अपने ही घर में आज वो महमान बन गए II७II

अब जानते हैं नाम से बेटे के बाप को I
बिगड़े हुए जनाब ही पहचान बन गए II८II

जिस बाप के इमान की खाते थे सब कसम I
बच्चे बड़े हुए तो बे-ईमान बन गए II९II

मंजिल को फिर भी पा ही लिया जबकि सोचिए I
साहिल के आस-पास ही तूफ़ान बन गए II१०II

बेजान हम थे मुद्दतों से जानते थे वो I
पर जान जान कह के "अमित" जान बन गए II११II
_______________________________________________________________________________
मोहन बेगोवाल 


हम ने तराशे जो यहाँ भगवान बन गए ॥
क्यूँ हम न तेरी नजर में इंसान बन गए ॥


जिन राहों पे कभी न थे एक कदम भी चले,
वो राह मेरी जात की पहचान बन गए ॥


जिस ने हमें चाहा वो ही कीमत लगा गया,
क्या दौर हम बाजार का सामान बन गए ॥


जिन को न याद अब हमारी याद भी रही,
रखा उन्हें याद हम तभी नादान बन गए ॥


सागर में जा कि फस गए मंझदार में थे जो,
साहिल के आस पास ही तूफान बन गए ॥
___________________________________________________________________________
सूबे सिंह सुजान 


पुतलों में जान आ गई, इन्सान बन गये
इनसान जितने थे वो अब शैतान बन गये


मासूम बच्चे घर में डरे सहमे बैठे हैं,
रिश्ते हमारे अपनों के हैवान बन गये


जो तेरे दिल में मेरी महब्बत के फूल थे,
वो फूल तेरे होंठों पे मुस्कान बन गये


उम्मीद के करीब हवा तेज हो गई
साहिल के आस-पास ही तूफान बन गये


सत्संग कर रहे हैं वो, लोगों की भीड में,
जो लोग नास्तिक हैं, वो भगवान बन गये
___________________________________________________________________________
Gajendra shrotriya 


हर एक ऐब छोड़ के सुबहान बन गए
हम बाख़ुलूस इश्क़ के दौरान बन गए


महमान खुद को मान लिया इस ज़मीं पे जब
ये जीस्त के मसाइल आसान बन गए


वुसअत हमें मिली न गुलिस्तान की तरह
तो चार गुल सहेज के गुलदान बन गए


क्या खूब होगी सोचिये उस तिफ़्ल की अदा
रसखान जिसपे लिखके रस की खान बन गए


मजदूरों की थकान है बुनियाद में निहाँ
यूँ ही नहीं मकान आलीशान बन गए


थे जीस्त में अज़ाब अज़ल शुक्रिया तेरा
दो गज़ की सल्तनत मिली सुलतान बन गए


गहराइयाँ न मन की किसी से कभी नपी
हर शै की नाप-तोल के मीजान बन गए


वो खार बस उठा रहे हैं छोड़ के गुलाब
जो छोड़ के ईमान बेईमान बन गए


जब से यहाँ से रुखसत वो आशना हुआ
दिल के नगर उजड़ के बियाबान बन गए


धरती पे वो खुदा हमें लाया है किसलिए
ये बात सोच सोच के इंसान बन गए


कश्ती निकाल लाये तलातुम से हम मगर
"साहिल के आस पास ही तूफ़ान बन गए "
_______________________________________________________________________________

Akhand Gahmari 


सींचा वतन लहू से पहचान बन गए
कर लें सलाम आज जो अभिमान बन गए

मिलता मुकाम आज हमें प्‍यार का मगर
साहिल के आस पास ही तूफ़ान बन गए

मैने निभा दिया हर वादा किया हुआ
ये जानते हुए वह अनजान बन गए

हर रात रो रहेे हम उनकी ही याद में
अब तो वही हमारे भगवान बन गए

मौसम दिया दगा तो सूखी रही जमी
जो खेत थे हरे कल मैदान बन गए

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मिसरों को चिन्हित करने में कोई त्रुटि हो अथवा किसी शायर की ग़ज़ल छूट गई हो तो अविलम्ब सूचित करें|

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Replies to This Discussion

आदरनीय राना प्रताप जी, आप जी की तरफ से की गई मिहनत  का जवाब नहीं ,

जो हम जैसे लोगों की  गलतियों का अहसास करा देते हो,. धन्यवाद , मै  गजल को अपनी सोच अनुसार  सोध कर पेश कर रहा हूँ , कृपा राए देना

हम  ने  तराशे  जो यहां भगवान बन गए॥

हम क्यों न उनकी नज़र में इंसान बन गए॥

जिस रह पे हम थे न एक भी कदम  हो चले,

वो  राह    मेरी  जात   की  पहचान बन गए॥

जिस  ने  हमें चाहा  वो ही कीमत लगा गया,

क्या दौर   हम बाज़ार  का सामान बन गए॥

जिन को न याद  अब हमारी याद भी रही,

हम  याद  जो रखा  तभी  नादान बन गए॥

सागर में जा कि फस गए मँझदार में थे जो,

साहिल   के  आस  पास ही तूफान बन गए॥

इस त्वरित संकलन के लिए बधाई। मेरी रचना इसबार पूरी तरह लाल व नीले रंग में रंगी है। इस समय मैं इन्टरनेट से दूर हूँ और मोबाइल में यह कुछ असहज सा है...।
इस त्वरित संकलन के लिए बधाई। मेरी रचना इसबार पूरी तरह लाल व नीले रंग में रंगी है। इस समय मैं इन्टरनेट से दूर हूँ और मोबाइल में यह कुछ असहज सा है...।
इस त्वरित संकलन के लिए बधाई। मेरी रचना इसबार पूरी तरह लाल व नीले रंग में रंगी है। इस समय मैं इन्टरनेट से दूर हूँ और मोबाइल में यह कुछ असहज सा है...।

आदरणीय श्री राणा जी , हार्दिक बधाई आपके संयोजन और निर्देशन में एक और सफल आयोजन ! सभी ग़ज़लें अच्छी बन पड़ी हैं ओ बी ओ तरही ग़ज़ल की एक कार्यशाला है और इसने हम सबको बहुत कुछ सीखने जानने का अवसर प्रदान किया है आभार आपका !!

आदरणीय श्री राणा प्रताप जी ! ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा अंक 51 में शामिल गज़लों के इस संकलन हेतु आपका हार्दिक आभार !

इस मुशायरे में मेरे द्वारा प्रस्तुत ग़ज़ल के तीन मिसरे बेबह्र  हो रहें हैं। इनके सन्दर्भ में कृपया मेरा मार्गदर्शन करें !

जब से यहाँ से रुखसत वो आशना हुआ ( यहाँ रुखसत के स्थान पर रुख्सत करने से शायद बात बन सकती है। )

ये जीस्त के मसाइल आसान बन गए ( इस मिसरे में कोई त्रुटि मैं नहीं ढूंढ पा रहा हूँ )

यूँ ही नहीं मकान आलीशान बन गए ( यहाँ शायद आलीशान के आ ने मिसरा बेबह्र किया है। )

कृपया आवश्यक संशोधन निर्देशित करके त्रुटियों के परिमार्जन में सहयोग करें। सादर आभार।

आदरणीय गजेन्द्र जी पहले दो मिसरों में दूसरे रुक्न में समस्या है, तकती करने पर बात समझ में आएगी| तीसरे मिसरे में बहर सम्बन्धी कोई त्रुटि नहीं है, बस पढने में थोड़ा अटकाव हो रहा है, उसे लाल रंग में करना मेरी त्रुटि है, मैं अभी सुधार कर देता हूँ|

Bahut achchi ghazal waaaaaaaaaaaaaaah sabhi ko meri aur se badhaai

कुछ लाल मिसरे अब तक लाल है.

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