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जनाब डॉक्टर छोटे लाल साहिब , ग़ज़ल पर आपकी सुन्दर प्रतिक्रिया और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
आ0 तस्दीक़ साहिब बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है, हृदय से बधाई कुबूल करें।
मुहतरम जनाब बासुदेव साहिब ,ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
प्रदत्त विषय पर ग़ज़ल कहने का सद्प्रयास हुआ है आ० तसदीक़ अहमद खान साहिब. इसके कई पहलुओं पर विस्तृत चर्चा हो चुकी है, अत: वज़न/तकती'अ आदि के बारे में तो कुछ नहीं कहूँगा. लेकिन यकीनन इस ग़ज़ल का मियार आपके कद से मेल नहीं खा रहा क्योंकि आपसे हमे हमेशा बेहतरीन की उम्मीद रहती है. सादर.
मुहतरम जनाब योगराज साहिब ,मैं हमेशा बेहतर ही देने की कोशिश करता हूँ । जिस तरह ग़ज़ल को ले कर कॉमेंट किये गए उनका मैं ने जवाब भी दिया है । यह बात अलग है कोई मुत्मइन हो या न हो ।मैं ने अपनी तरफ से प्रदत्त विषय को परिभाषित करने की पूरी कोशिश की है । मुझे उम्मीद है कि आगे भी आप मेरी तरफ ना उम्मीद नहीं होंगे , ग़ज़ल में शिरकत और मश्वरे का बहुत बहुत शुक्रिया। सादर
आदरणीय तस्दीक अहमद खान साहब , आपने अपने मन की बात खेत और खलिहान के माध्यम से ठीक ही कही है। रचना के तकनीकी दृष्टिकोण पर विद्वान अपनी अपनी राय दे ही चुके हैं उन पर भी ध्यान देना आवश्यक लगता है। वैसे, रचनाकार की रचना उसके लिए अद्वितीय होती है। सादर।
मुहतरम जनाब टी आर शुक्ल साहिब ,ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
जनाब तस्दीक साहब,
आपकी ग़ज़ल बहुत खूबसूरत है,
आप जिस विषय को लेकर ग़ज़ल कहे हैं अच्छे अच्छों को शेर कहने में पसीना छूट जाता है,
मुबारकबाद कुबूल करें,
कहने को तो लोग दस ऐब बता देते हैं इसमे क्या, पर उसे सही निभा के भी बताएं,, हाँ यह मंच सीखने सीखने का है पर यह नहीं की किसे पे हमला कर दिया जाए..
समझाने का भी तरीक़ा होता है... शेर शायर की औलाद के तरह होता है, और उसकी औलाद को खराब कहने का क्या मतलब,
और वो कहें जिनकी ग़ज़लें .......
कुछ लोग इस ब्लाग में बहुत...... बड़े जानकार हैं पर किसी को इतना छोटा मनाना मेरे समझ से परे हैं.....
...... इस तरह किसी के साथ बात करना. अच्छा नहीं होता.... और जनाब तसदिक़ साहिब ब्लाग के महत्पूर्ण सदस्य हैं...और हज़ारों ग़ज़ल कह चुके हैं और वो समझाए जो खुद सीख रहे है..
उनके साथ ये बात हमको.. ब्लाग के प्रति निराशा, पीड़ा उत्पन कर रही है
जनाब समर साहब आप की मैं बहुत इज्ज़त करता हूँ आप ब्लाग़ की जान है... आप जब नहीं होतो ब्लाग अधूरा लगता है... मैं आपको उस्ताद के मारातिब के मुताबिक़ देखते हैं... परंतु माफ़ी चाहूंगा आज आपका लहज़ा बदला बदला लगा..
और आपका आखिरी में शेर लिखना,
आग में घी डाल रहा है... आपको नहीं लिखना चाहिए था...
माफ़ी के साथ.
सलीम रज़ा
जनाब सलीम रज़ा साहिब,आपका बड़ा अहसान है कि आप मेरी इज़्ज़त करते हैं,आपकी जानकारी के लिए बतादूँ कि ये फ़ेसबुक नहीं ओबीओ है, और यहाँ रचना को देखा जाता है,रचनाकार को नहीं,मैंने कोई ऐसी बात नहीं लिखी जिससे मंच की गरिमा को ठेस पहुंचे,:-
'जिसको हो जान-ओ- दिल अज़ीज़ उसकी गली में जाये क्यों'
वैसे अब में अपनी टिप्पणी की इस्लाह आपसे सलाह लेकर किया करूँगा ,
जनाब सलीम रज़ा साहिब ,ऐसा पहली बार नहीं यह तो सदियों से हो रहा है ,
आपने लगता है सारे कॉमेंट पढ़ लिए हैं ,आपकी खूबसूरत प्रतिक्रिया और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
आ. सलीम साहब,
आपकी टिप्पणी का इशारा मेरी ओर है इसलिए मुझे आना पड़ा वरना मैं अपनी बात पूरी कर चुका था..
//कहने को तो लोग दस ऐब बता देते हैं इसमे क्या, पर उसे सही निभा के भी बताएं// यानी आप कहना चाहते हैं कि वो पाठक जो ग़ज़ल नहीं कहते वो सर वाह वाह कर के निकल जायं और कोई सवाल न करें क्यूँ कि वो बेचारे ग़ज़ल को निभा नहीं सकते??
साहित्यिक चर्चा को और तन्कीद को हमला करार देना उस अधिनायकवादी वृत्ति का परिचायक है जो सिर्फ जयजयकार सुनना पसंद करती है .. और जब ऐसा होता है तो सीखने की , समझने की क्षमता और विवेक नष्ट हो जाता है और फिर यही अनावश्यक लाड-प्यार कथित औलादों को बिगाड़ भी देता है.
और वो कहें जिनकी ग़ज़लें ....... इस वाक्य को पूरा करते तो बेहतर होता... लेकिन शायद आपमें बात खुलकर कहने का हौसला नहीं है... खैर...
कोई हज़ार ग़ज़लें कह चुका हो या लाख. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.. इस विधा में संख्या नहीं क्वालिटी मायने रखती है... काश आप यह साधारण बात समझते तो ऐसा न कहते..
अस्तु;
खेत-खलिहान
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बुला रहा है मुझे वो बचपन, वो खेत खलिहान याद आएं।
पुकारता है गुलों को गुलशन, वो खेत खलिहान याद आएं।
सफ़ेद गैयाँ की काली बछिया, भरा तबेला अनेक भैंसें
जिन्होंने पाला था दे के अमृत, जिन्हें मनाया कभी सताया।
चला था घर से मैं शहर को जब, उदास वो भी थी साथ माँ के,
दही मलाई वो दूध मक्खन, वो खेत खलिहान याद आएं।
जहाँ से अमरूद तोड़ते थे, चिढ़ा के माली को भागते थे।
कभी बचे भी, कभी पिटे भी, शरारतों से न बाज आते।
अभी भी क्या कोई ऐसा बच्चा, अभी भी माली है क्या उसी सा,
बिना हमारे है कैसा उपवन, वो खेत खलिहान याद आएं।
जहाँ पे होता था इक बिठौड़ा, वहाँ पे क्या है, बताओ थोड़ा।
खजूर के पेड़ नीचे बिल था, दिखा जहाँ पर, न साँप कोई ।
पके से जामुन, वो आम कच्चे, निम्बोरियों को बनाना कंचे,
वहीं पे बैठा है मेरा छुटपन, वो खेत खलिहान याद आएं।
हुआ है क्या ये, कहाँ मैं आया, गया था जो छोड़ कुछ न पाया।
न मिट्टी है और, न पेड़ पौधे, बनाई किसने यहां कलोनी।
उजाड़ डाला किसी ने बचपन, मिटा दी मिट्टी की सौंधी खुशबू
मिटाऊं कैसे ये दिल की तड़पन, वो खेत खलिहान याद आएं।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
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