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विनम्र आभार, आदरणीय डॉ छोटेलाल सिंह जी।
विनम्र आभार, आदरणीय तस्दीक अहमद खान साहब। आपने ठीक कहा है परन्तु अब खलिहान तो बचे ही नहीं हैं। एक समय था जब खलहान में कटी फसल महीनो तक रखी रहती थी और वायु के रुख के हिसाब से उड़ावनी की जाकर अन्न के छोटे बड़े ढेर दिखाई पड़ते थे, जिसका अलग सौंदर्य था। अब तो बड़े किसान हार्वेस्टर और छोटे किसान भी किराये की ही सही, मशीनों से ही कार्य लेने लगे हैं। खेत ही खलिहान में बदल गए हैं। फसल काटने के बाद केवल अवशेष ही दिखाई देते हैं। प्रकृति भी अब अनुकूल नहीं रही, यह भी दुखित करता है किसान को , कुछ इसी प्रकार की व्यथा को अंकित करने का प्रयास मात्र है। सादर।
प्रदत्त विषय में से बिम्ब लेते हुए विषयांतर्गत बेहतरीन सृजन। हार्दिक बधाई और आभार आदरणीय डॉ त्रैलोक्य रंजन शुक्ल जी।
रचना को मान देने के लिए विनम्र आभार आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी।
हार्दिक बधाई , आ. सुकुल जी.. सुंदर रचना हुई है।
विनम्र आभार, आदरणीय लक्ष्मण धामी जी।
हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ टी आर सुकुल जी। बेहतरीन रचना।
विनम्र आभार, आदरणीय तेजवीर सिंह जी।
विनम्र आभार, आदरणीय सतविंदर कुमार जी।
बहुत सुन्दर रचना हार्दिक बधाई आदरणीय डाॅ सुकुल जी
खेत और खलिहान (सरसी छंद)
गाँवों में हैं प्राण हमारे, दें इनको सम्मान।
भारत की पहचान सदा से, खेत और खलिहान।।
गाँवों की जीवन-शैली के, खेत रहे सौपान।
अर्थ व्यवस्था के पोषक हैं, खेत और खलिहान।।
अन्न धान्य से पूर्ण रखें ये, हैं हमरे अभिमान।
फिर भी सुविधाओं से वंचित, खेत और खलिहान।।
अंध तरक्की के पीछे हम, भुला रहे पहचान।
बर्बादी की ओर अग्रसर, खेत और खलिहान।।
कृषक आत्महत्या करते हैं, सरकारें अनजान।
चुका रहें कीमत इनकी अब, खेत और खलिहान।।
अगर बचाना हमें देश को, मन में हो ये भान।
आगे बढ़ते रहें सदा ही, खेत और खलिहान।।
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