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किसान पुत्र (अतुकांत)
वो थके नहीं हैं
खुद से मायूस हैं
उन्हें ये आभास ज़रा देरी से हुआ
कि वो ठगे जा रहे हैं
उन्हें मलाल है
कि अपनों के द्वारा लूटा गया
उन्हें एहसास हो चला है
कि पेट
न तो जज़्बातों से भरता है
और न ही, नारों से ....
उनके खेत अब उनके नहीं रहे
बैंक की प्रॉपर्टी हो गए हैं
उनके खलिहान
बैंक ब्याज की
तुच्छ भेंट चढ़ रहे हैं
वो समझ गए हैं
कि जमींदार बदल चुके हैं
जमींदारी का काम
बैंकों ने बखूबी संभाल लिया है
कर वसूली का बीड़ा भी
खुद उठा लिया है
मुझे गाँव वापिस बुलाने की ज़िद
अब उन्होने छोड़ दी है
वो कर्ज़ के बोझ तले खुश रहने लगे हैं
मेरे शहरी हो जाने के निर्णय को
मेरी दूर दृष्टि बताने लगे हैं
गाँव वापसी के सभी रास्ते
मेरे लिए बंद हो चुके हैं |
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
आद0 नादिर खान जी सादर अभिवादन। बढिया अतुकान्त लिखा आपने। बेहतरीन। बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर
जनाब नादिर खान साहिब ,प्रदत्त विषय के अनुकूल सुन्दर रचना हुई है ,मुबारक बाद क़ुबूल फरमाएं।
विदेशी तालमेल और विदेशी अंधानुकरण वाले अंधे व्यावसायिक और अंधे वैज्ञानिक विकास की होड़ में देश के खेत और खलिहान और उनके संबंधियों के हालात पर बेहतरीन अतुकान्त सृजन के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब नादिर ख़ान साहिब।
आदरणीय नादिर खान जी आदाब,
सच है खेत-खलिहान के ख़त्म होने या हाथ से निकल जाने का सबसे ज़ियादा प्रभाव किसान की संतानों को झेलना पड़ता है । किसान के लुटेरे पहले सामंती कुत्ते होते थे । इन हरामियों ने किसानों का ख़ूब शोषण किया । सामंतियों का नया संस्करण बाज़ारवाद आया जिसने उसकी उपज को सस्ते दामों में ख़रीदा और ऊँचे दामोंं में बेचा । फिर दूसरा संस्करण आया भू माफियाओं का और तीसरा संस्करण लुटेरी बैंकों का आया । अब ये लुटेरी बैंकें खेत-खलिहान पर अपना कब्ज़ा जमा रही है । बहुत अच्छी कविता के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
जनाब नादिर ख़ान साहिब आदाब,प्रदत्त विषय पर अच्छी कविता लिखी है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
हार्दिक बधाई आदरणीय नादिर खान साहब जी। बेहतरीन रचना।
आदरणीय नादिर खान साहब बहुत सुंदर रचना अति प्रशंशनीय बधाई हो
आ. भाई नादिर जी, सुंदर कविता हुई है हार्दिक बधाई ।
संघर्षों की अमर कहानी, उम्मीदों के बनें निशान
खेत और खलिहान रे भाई खेत और खलिहान
ज्येष्ठ चढ़े तो सूरज चढ़कर,ताप ख़ूब बरसाता है
चलकर गर्म पवन खेतों के तन को बस झुलसाता है
गिरे पसीना तन पर इनके,इनको बहुत सुहाता है
गर्मी की वर्षा में कोई,पौध आस की लाता है
इस आशा को पाले रखता,वृद्ध हुआ या रहा जवान
खेत और खलिहान रे भाई खेत और खलिहान
पोष मास में होता जाड़ा,पानी पत्थर बन जाए
फसलों को देना है पानी,कृषक नहीं पर टल पाए
ठिठुरन से तन थर-थर काँपे,चैन कहाँ चित को भाए
कर्म करे तब कुछ ना मिलता,बिन कर्म कहाँ से आए
दिल में सपनों की रौनक ले,बीत रहीं रातें सुनसान
खेत और खलिहान रे भाई खेत और खलिहान
भोजन की खातिर कटते औ घटते जाते सब जंगल
खेत बढ़ें तो अन्न उगाएं जन का करने को मंगल
वन्य जीव, मानव-मानव में,शुरू हुआ देखो दंगल
सभ्य दिखें जो दीवारें वो,घेर रही हैं इक जंगल
घटे दायरा खेतों का भी,फैल रहें हैं ख़ूब मकान
खेत और खलिहान रे भाई खेत और खलिहान
बने भाग्य हलधर का अच्छा,मिट्टी की यह आशा है
शासन कर ले इसकी चिंता,ऐसी भी अभिलाषा है
सुख तो उसने कम ही पाया,गम सहता वह ख़ासा है
कुदरत ने भी पलटा उसकी,किस्मत का ही पासा है
घुट-घुट कर वह जी लेता है,खुलती लेकिन नहीं जुबान
खेत और खलिहान रे भाई खेत और खलिहान।
संघर्षों की अमर कहानी,उम्मीदों के बनें निशान
खेत और खलिहान रे भाई खेत और खलिहान।।
मौलिक एवं अप्रकाशित
आद0 सतविंदर भाई जी सादर अभिवादन। बढिया सृजन प्रदत्त विषय के पूर्णतया परिभाषित करती हुई। इस प्रस्तुति पर आपको बधाइयाँ
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