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आपका आभार आदरणीया अर्चना जी।
आदरणीय मनन सिंह जी, प्रतीकात्मक प्रस्तुति होते हुए भी कथानक, कथ्य सब स्पष्ट हैं। और शीर्षक तो क्या खूब दिया है। लघुकथा विधा के वर्तमान संदर्भ पर तीखा तंज है। जिन लोगों ने इसे व्यापार बना लिया है उन्हें भी अच्छी तरह लपेटा है। हार्दिक बधाई स्वीकारें।
आदरनीय मनन जी , बहुत सुंदर लघुकथा के लिए बधाई हो
अहम् यदा, यदा; तदा, कदा (लघुकथा) :
“तुम होतीं, तो ऐसा होता; तुम होतीं, तो वैसा होता! मैं और मेरी तन्हाई अक्सर ये बातें करते हैं!” एक मशहूर फ़िल्मी नग़में की इस पंक्ति में शब्द ‘तन्हाई’ की जगह ‘रुसवाई, जगहँसाई, अंगड़ाई, बड़ाई, कसावट, झुंझलाहट, तरावट, सजावट…. और भी न जाने कितने शब्द प्रतिस्थापित करते हुए इस पंक्ति में शब्द ‘तुम’ की जगह मैं स्वयं को रखने लगी और शब्द ‘मैं’ की जगह शब्द ‘स्त्री’ या ‘पुरुष’ रखने लगी। सदियों से अपने ‘अंग और रंग’ और अपने ‘कारक और मारक तत्वों’ पर विहंगावलोकन करती हुई इस नयी सदी में इन सबसे संबंधित विचार मंथन करती अपने आज के वजूद पर सोचने लगी।
मैं मानवीय, प्राकृतिक और भौतिक या सांसारिक रिश्तों में भी थी और हूँ; संस्कृति और तहज़ीब में थी और हूँ; धर्म, राजनीति, लोकतंत्र, क़ानून, संविधान और जम्हूरियत के चारों-पाँचों स्तम्भों में भी थी और हूँ! ... पर पहले क्या थी, फिर क्या हुई या बना दी गई और अब आज क्या हूँ, क्या बना दी गई हूँ….. यह सब सोच-सोचकर बहुत विचलित हूँ। उदास व निराश हूँ!
क्या मैं आज के पुरुष में हूँ? स्त्री में हूँ? …क्या मैं उन सब में हूँ, जिनके नाम मैंने ऊपर दिये हैं?
“हाँ, मैं हूँ न! उन सब में हूँ! यहीं कहीं हूँ! तभी तो वे सब आज भी बचे हुए हैं, है न! ... तभी तो परिवार, समाज, मुल्क, और दुनिया क़ायम है, है न!” यह सोच-सोच कर स्वयं को तसल्ली देती रहती हूँ।
लेकिन फ़िर कभी-कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है, “नहीं, मैं कहीं नहीं हूँ! अगर हूँ भी, तो वैसी नहीं, जैसी मुझे होना चाहिए! ... आख़िर मैं मर्यादा हूँ!”
(मौलिक व अप्रकाशित)
आ. भाई शेख शहजाद जी, अच्छी कथा हुई है । हार्दिक बधाई ।
हार्दिक बधाई आदरणीय शेख उस्मानी जी। आपकी चिर परिचित शैली और क्लिष्ट भाषा में "मर्यादा" का अद्भुत विश्लेषण करती बेहतरीन लघुकथा। आपकी लघुकथा के मर्म को पहचानने के लिये लघुकथा को दो तीन बार पढ़ना पड़ता है।लेकिन इसके बावजूद भी आप मेरे पसंदीदा लघुकथाकार हैं।सादर।
आदाब। क्लिष्टता से बाहर आने की कोशिश करूंगा। दरअसल कम समय अवधि में क़लम जैसी चलती गई, उसी अनुरूप सहभागिता सुनिश्चित करता गया। रचना पटल पर इतना समय देकर पाठकीय व स्नेही टिप्पणी से मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु हार्दिक धन्यवाद जनाब तेजवीर सिंह साहिब।
रचना पटल पर समय देकर प्रोत्साहित करने हेतु हार्दिक धन्यवाद जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' साहब।
आदरणीय उस्मानी जी, उसका कहना कि मैं हूं,चाहे जैसी भी है;बेहद मर्मस्पर्शी है।मर्यादा आखिर मर्यादा है न।लघुकथा के लिए आपको ढेर सारी बधाइयां। हां, तदा का मतलब नहीं समझा।
आदाब। मेरी रचना पर हमेशा की तरह समय व टिप्पणी देकर मेरी 'सुधी पाठकीय हौसला अफ़ज़ाई' हेतु हार्दिक धन्यवाद जनाब मनन कुमार सिंह साहिब। एक श्लोक के अर्थ में पढ़ा था : //तदा = तब-तब//
अच्छी लघुकथा है कही है भाई उस्मानी जी. प्रदत्त विषय के साथ पूर्ण न्याय हुआ है. हार्दिक बधाई स्वीकारें. मेरी राय में लघुकथा का पहला पैरा उलझा हुआ भी है और ग़ैर-ज़रूरी भी. अगर लघुकथा दूसरे पैरे से शुरू की जाती तो इसका प्रभाव, सन्देश और सम्प्रेष्ण बहुगुणित हो जाता.
आदाब। रचना का आरंभ सोचा कुछ और था, लेकिन लिखते समय वैसा लिखता चला गया। बहुत ही महत्वपूर्ण मार्गदर्शन व आपकी सम्मानित उपस्थिति हेतु बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय योगराज सर जी।
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