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उत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत आभार आ
" हमदर्दी "
"समझाया था ना तुम्हें पर तुमने ना कसम खा रखी है कि मेरी बात नहीं मानोगी। अरे राजधानी का सफर था यह, सारा खाना मिलता है यहाँ,
पर ना जी ना घर से पूरा खाना बांध कर ही निकली तुम। और जब घर का ही खाना खाया तुमने, तो यह रेलवे का खाना क्यों बांध लिया। अब क्या करोगी इसका "
"आप भी ना बात बात पर गुस्सा, अरे किसी गरीब के मुँह लग जायेगा। अन्न देवता का अपमान करने से क्या फायदा, वो देखो वो रहा एक तो,
स्टेशन पर ऐसे लोगों की कमी नहीं होती। "
कहते हुए जया जी ने वो खाना एक जरूरतमंद को दे दिया।
उसके बाद चार कदम भी नहीं चल पायी थी जया जी, तभी कुछ लोगों ने उन्हें घेर लिया। और चिल्लाने लगे।
"यही है वो औरत जिसने उस गरीब को खराब खाना दिया। देखो जरा कैसे तडप रहा है। ओह यह तो मर गया अरे कोई पुलिस को तो बुलाओ। मार डाला रे हाय मार डाला। "
यह सब देख जया जी के तो हाथ पांव फूल गये। पुलिस को आता देख उन्हें लगा, कि अब शायद कोई उनकी बात सुनेगा। पर पुलिस भी उन्हें ही गुनहगार मानने लगी।
तभी एक पुलिस वाला बोला।
"बेहोश है यह डाक्टर के पास ले चलते हैं आप लोग भले लोग लगते हैं 50 हजार दे दिजिये हम सब सम्भाल लेगें अगर यह मर मरा गया तो आप तो गयी। "
बेबसी के साथ एटीएम से पैसा निकालती जया जी कि हालत पिटे हुए प्यादे जैसी ही हो रही थी। दूसरी तरफ पुलिस वाले और वो नकली जरूरतमंद अपने साथियों के साथ चल पडे थे,शतरंज पर शय और मात की एक नई बिसात बिछाने के लिए।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
आदरणीया नेहा जी प्रदत्त विषय के अनुरूप बढ़िया कथा हुई है. " शय और मात की ऐसी बिसात" के कारण ही आदमी का आदमी से विश्वास उठ रहा है और दया सहानुभूति से भी कतराने लगे है लोग. इस प्रस्तुति पर आपको हार्दिक बधाई.
हार्दिक बधाई आदरणीय नेहा जी!बेहतरीन प्रस्तुति!
वाह !!! जबरदस्त लघुकथा की प्रस्तुति हुई है आदरणीया नेहा जी ,दिल बाग़ -बाग़ हो गया इस लघुकथा को पढ़कर। ढेरों बधाई स्वीकार कीजिये।
आदरणीया नेहा जी, मेरे कहे के अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार आपका.
मिथिलेश वामनकर
वाह आदरणीया नेहा जी, लघुकथा के लिये आपके चुने हुए प्लोट हमेशा ही शानदार और यथार्थ से जुड़े हुए होते हैं, यह रचना भी इसी का सबूत है, हार्दिक बधाई स्वीकार करें|
नेकी कर दरिया में डाल , कहावत को चरितार्थ करती रचना , बहुत बहुत बधाई आ
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