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आपकी यह प्रतीकात्मक प्रस्तुति अच्छी लगी भाई शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी I सार्थक सन्देश देती हुई इस लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई I
हार्दिक बधाई आदरणीय शेख उस्मानी जी!एक नया विषय लेकर उच्च स्तर की रचना!बेहद गंभीर और संजीदा प्रस्तुतीकरण!प्रदूषण और जल संकट जैसी समस्याओं के प्रति जागरूकता लाने का बेहतरीन प्रयास!प्रकृति मनुष्य के लिये गंभीर है मगर मनुष्य स्वार्थ वश उसका अनुचित दोहन कर सारा संतुलन खराब कर रहा है!पुनः बधाई इस सशक्त लघुकथा के लिये!
अच्छे विषय का चुनाव और सफल निर्वहन बधाई स्वीकार करें आदरणीय
प्रतीकों के माधयम से अच्छी रचना का निर्माण किया है आपने जिसके लिए हार्दिक बधाई | आपकी शैली भी अलग है और विषय का चुनाव भी बढ़िया , ढेरों शुभकामनायें आपको
आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी , सर जी, आप की हर लघुकथा और दूसरों की लघुकथाओं में पढ़ कर उन पर टिप्णी बहुत अच्छी लगती , इस प्रभावशाली लघुकथा के लिए बधाई हो
अपनी-अपनी आस ( विषय - आकांक्षा )
"सुनो जी ! इस बार नए साल की पार्टी के लिए मुझे हीरों का हार चाहिए ही चाहिए ।पूरी कॉलोनी में एक मैं ही हूँ , जिसके पास एक भी ढंग का हार नहीं ।"
" जब तुमने निर्णय ले ही लिया है तो कोई इनकार कर सकता है भला ।सोच तो मैं भी रहा था , नई गाड़ी लेने की । तीन साल से एक ही गाड़ी चलाते-चलाते बोर हो गया हूँ । "
" तो खरीद लीजिये न ।"
" अरे हाँ ! घर में क्या नोटों का पेड़ लगा है ? फिर, पिछले महीने हमने जो फार्म-हाउस खरीदा था , उसकी किश्त भी तो भरनी है ।" बगीचे की ओर बढ़ते हुए वह निराश भाव से बोले ।
" हूँ......। हम कब तक ऐसे ही आस को मार - मारकर जिएँगे , कभी सोचा है आपने ? " वह भी पीछे-पीछे चल पड़ी , और क्षुब्ध हो साथ की कुर्सी पर बैठ गई ।तभी उनके कानों से एक आवाज़ टकराई ।
" आजे देसी घी री रोटी अन्ने मूँग री दाल खाई ने आवी रियू हूँ । दो बार हाथ धोई लीदा , अबार तक खुसबू आयी री है ... साची , मजो आवी गयो ।नरा दिना बाद देसी घी की आस पूरन हुई .......। " बगल में बन रहे नए बँगले पर मजदूर की आकांक्षा सुन दोनों की महत्त्वाकांक्षी नज़रें मिलते ही झुक गईं ।
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मौलिक एवं अप्रकाशित ।
वाह, क्या खूब रचना कही है आदरणीया शशि जी और साथ में राजस्थानी भाषा भी! वास्तव में अपनी अपनी आकांक्षा है, कोई घी की रोटी खाकर भी खुश है और कोई हार और गाड़ी खरीदने के लिए परेशान है| हार्दिक बधाई आपको इस सुंदर सृजन के लिए|
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