नियति चक्र में
परिवर्तन निश्चित अंकित है,
होना है, हो कर रहता है...
समय प्रबल है
जोड़-तोड़ से कब बंधता है
बहना है, प्रतिपल बहता है...
आँख मींचते
आवरणों को क्यों पकड़ा है ?
छोड़ो इनको, हट जाने दो,
धुंध सींचते
संबंधों के रिसते बादल
गर्जन करके छट जाने दो,
मकड़जाल में
अपने मन के फँसे रहे तो
फिर क्या होगा? कुछ तो सोचो !
भीतर-बाहर
परिवर्तन तो करना होगा
जमी सोच की परतें…
Added by Dr.Prachi Singh on January 22, 2017 at 8:00pm — 10 Comments
बुलबुल ने छोड़ा पंखों पर
अब बोझा ढोना,
नई सुबह की आहट अब
तुम भी पहचानो ना....
अंतर्मन में गूँजी जबसे
सपनों की सरगम,
अपने रिसते ज़ख्मों पर रख
हिम्मत का मरहम,
झूठे बंधन तोड़ निकलना
सीख चुकी है वो,
बाहों में भर लेगी अम्बर
चाहे जो भी हो,
रहने देगी नहीं अनछुआ
कोई भी कोना....
नई सुबह की आहट अब
तुम भी पहचानो ना....
क्यों बाँधे उसके पल्लू में
बस भीगे सावन,
भर लेना है हर मौसम से
अब उसको…
Added by Dr.Prachi Singh on January 5, 2017 at 2:00pm — 14 Comments
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