सिमटी रही
दो रोटियों के बीच
पूरी जिंदगी
ढूँढते रहे
जिंदगी भर सार
पर निस्सार
किसका बस
आज है कल नहीं
जिंदगी का क्या
आदि से अंत
बने अनंत, दूर
क्षितिज पर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neelam Upadhyaya on January 31, 2017 at 4:00pm — 6 Comments
व्यस्त है हवा
रुक जाए चिंगारी
दावानल से
बीमार पिता
बेटों का झगड़ना
इतना खर्च!
महानगर
भूल गये अपने
पुराने दिन
भूख ग़रीबी
क्या जाने, महलों में
पैदा हुआ जो.
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neelam Upadhyaya on January 19, 2017 at 4:57pm — 8 Comments
शामिल हुआ
मौसम की दौड़ में
नव वर्ष भी।
चंचल नदी
उछली कहीं गिरी
बहती चली।
जीवन सांझ
यादों में डूबा मन
खुला झरोखा।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Neelam Upadhyaya on January 13, 2017 at 1:00pm — 11 Comments
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