मैं रोज़ ढलता हूँ पर , निकलता हूँ , क्या करूँ
सूरज हूँ , मगर रोज़ जलता हूँ , क्या करूँ //
मैं मिट्टी नहीं , न हि पानी न कोई खुश्बू
मैं हवा का इक झोंखा हूँ , आँख मल्ता हूँ , क्या करूँ //
मैं बचपन भी कहाँ अब , जवानी भी नहीं हूँ मैं
बुढ़ापा हूँ मैं , इसीलिए खलता हूँ , क्या करूँ//
न कोई सफ़र हूँ मैं , न कोई पड़ाव न सराय कोई
मील का पत्थर हूँ मैं , बस टलता हूँ , क्या करूँ //
कहाँ खुद्दार हूँ मैं , अना वाला भी नहीं हूँ…
ContinueAdded by ajay sharma on February 24, 2015 at 12:29am — 8 Comments
मन का मीत मन को छल गया
आँख का पानी मचल गया
वो मेहन्दी हाथ की मेरे चिटक के रह गयी
वो मछली नेह की मेरे , तड़फ़ के रह गयी
देह का सागर जल गया
पराई छाँव थी , आख़िर मैं रोकता कब तक
पराया ख्वाब था , आख़िर मैं सोचता कब तक
समय के हाथ से सावन फिसल गया
लिपट के रोटी रही , मन से मेरे प्रीत मेरी
वो अन्छुयी ही रही , मेरे स्वप्न की कोरी देहरी
आस का संबल गल गया
मौलिक अप्रकाशित
अजय कुमार शर्मा
Added by ajay sharma on February 16, 2015 at 11:00pm — 11 Comments
दूर मुझसे कितने दिन रह पायोगे , सोच लो , फिर रहो
दर्द-ए-दिल है ये , सह पायोगे , सोच लो, फिर सहो
लौट के खुद पे आती हैं , बद-दुयाएँ , सुना है ?
सहन ये सब कर पायोगे , सोच लो , फिर कहो
क्या नहीं उसने दिया , पर क्या दिया तुमने उसे ?
क्या कभी उठ पायोगे इतना , सोच लो , फिर गिरो
इतना भी आसां नहीं है, रास्ता ख़ुद्दारियों का
सूरज की जलन सह पायोगे , सोच लो , फिर बढ़ो
घर से बे-घर होके भी उसने बसाई दिल की दुनिया
आँसुयों सा ये सफ़र कर…
Added by ajay sharma on February 12, 2015 at 12:30am — 10 Comments
कुछ तो आपस मे बनी रहने दे
आसमाँ तेरा सही मेरी ज़मीं रहने दे
बिछड़ के होगा तुझे अफ़सोस इस खातिर
अपनी आँखों में नमी रहने दे
मिल गया तू मुझे , तो फिर क्या होगा
मेरे मौला ये कमी रहने दे
मेरे ईमान की आँखें बे-नूर हो जाएँ
तरक़्क़ी तू मुझे ऐसी रोशिनी रहने दे
गैरों पे यक़ीन करना पड़े , "अजय"
तू मुझसे ऐसी दुश्मनी रहने दे
अजय कुमार शर्मा
मौलिक & अप्रकाशित
Added by ajay sharma on February 4, 2015 at 11:27pm — 9 Comments
मोहब्बत क आयो दिया हम जलाएँ
ये नफ़रत के सारे अंधेरे मिटाएँ
हो मंदिर कोई एक ऐसा भी आला
हो इंसानियत का जहाँ पे उजाला
दुआ मिलके माँगें सभी सब की खातिर
इबादत जहाँ की मोहब्बत सिखाएं
वो खवाबों की पारियाँ वो चाँद और सितारें
महज़ हैं कहानी के क़िरदार सारे
क़िताबों के पन्नों से बाहर निकल के
चलो हम हक़ीकत की ग़ज़ल गुनगुनाएँ
यही धर्म कहता है मज़हब सिखाता
सबक देती क़ुरान कहती है गीता
हो पैदा ये अहसास…
Added by ajay sharma on February 2, 2015 at 11:29pm — 8 Comments
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