डगर कठिन है
मंजिल से पहले पग रुकता है
फिर हौसलों के सहारे
एक-एक पग आगे बढता हूँ
गिरता हूँ, संभलता हूँ
क्या?
मंजिल भी
मेरे इस परिश्रम को देख रही होगी
क्या?
वह भी जश्न मनायेगी
मेरे वहाँ पहुँचने पर
कभी-कभी
ये उत्कण्ठा भी उत्पन्न हो जाती हैं
फिर विचार आता है!
मंजिल जश्न मनाये या ना मनाये
उसे पा तो लूँगा, उसे चुमूँगा
दुनिया को दिखाउँगा कि
इसी के लिए मैने अथक प्रयास किया है
और अनवरत ही चलता रहता हूँ
इक-इक पग बढाते…
Added by Pawan Kumar on March 19, 2015 at 7:20pm — 8 Comments
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