धूसरित था मलिन-मुख हम स्वच्छ दर्पण कर रहे
झूठ को अपना लिया हर सत्य से अब डर रहे
अवधान तुमने किया था
हमने उसे माना नहीं
पाखण्ड यौवन का सदा
उद्दाम था जाना नही
पत्र अब इस विटप-वपु के सब समय से झर रहे
चेतना या समझ आती
है मगर कुछ देर से
बच नहीं पाता मनुज
दिक्-काल के अंधेर से
जो किया पर्यंत जीवन अब उसी को भर रहे
हम अकेले ही नहीं
संतप्त है इस भाव में
जल रहा है अखिल…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 22, 2016 at 7:50pm — 12 Comments
विद्रोहिणी सी बन गयी थी मैं
मेरी कुंठा और संत्रास
कैसे पनपे
नहीं जान पाई मै
और कितना असत्य था
उनका दुराग्रह
यह तब मैं न जानती थी
सच पूछो तो
नहीं चाह्ती थी जानना भी
कोई समझाता यदि
तो आग लग जाती वपुष में
अरि सा लगता वह
पर कोई देता यदि प्रोत्साहन
मुझे उस गलत दिशा में जाने का
तो वह लगता सगा सा
हितैषी और शुभेच्छु
संसार का सबसे प्रिय जीव
क्योंकि तब थी मैं
उसके प्यार…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 7, 2016 at 8:13pm — 3 Comments
छंद – वंशस्थ विलं
जगण तगण जगण रगण
121 221 121 212
जहाँ मनीषी प्रमुदा रहें सभी
जहां सुभाषी मधुरा प्रमत्त हों
जहां सुधा हो सरसा प्रवाहिता
वहां सदा है अनुराग राजता
उदार सारल्य स्वभाव में बसे
रहे मुदा निश्छलता नवीनता
सुकांति में हो कमनीयता घनी
वहां सदा है अनुराग राजता
वियोग में भी हिय की समीपता
नितांत तोषी मनसा समर्पिता
जहाँ शुभांगी पुरुषार्थ रक्षिता
वहां सदा है अनुराग…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 3, 2016 at 9:30pm — 2 Comments
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