धूसरित था मलिन-मुख हम स्वच्छ दर्पण कर रहे
झूठ को अपना लिया हर सत्य से अब डर रहे
अवधान तुमने किया था
हमने उसे माना नहीं
पाखण्ड यौवन का सदा
उद्दाम था जाना नही
पत्र अब इस विटप-वपु के सब समय से झर रहे
चेतना या समझ आती
है मगर कुछ देर से
बच नहीं पाता मनुज
दिक्-काल के अंधेर से
जो किया पर्यंत जीवन अब उसी को भर रहे
हम अकेले ही नहीं
संतप्त है इस भाव में
जल रहा है अखिल जग
भव्-दग्ध चंड अलाव में
नीव जो हमको मिली हम नींव वैसी धर रहे
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
इस रचना पर मेरा आना विलम्ब से हो रहा है, आदरणीय गोपाल नारायनजी. भाव पक्ष पर चर्चा करें तो आपके अनुभव से हम मंच पर सदा ही लाभान्वित होते रहे हैं. किन्तु प्रस्तुतियों के शिल्प-पक्ष के प्रति स्पष्ट दृष्टि भी अवश्य बनी रहनी चाहिए. आपकी यह प्रस्तुति किसी कोण से ’नवगीत’ की श्रेणी की नहीं है. दूसरे छन्दों का भी घालमेल असंयत कर रहा है. अनुभव और वरिष्ठता को देखते हुए, साहित्य-प्रयास में शैल्पिक व्यवस्था के प्रति संयत रहना आपका-हमारा धर्म होना चाहिए.
सादर
अति सुंदर रचना के लिए आपको सहृदय बधाई स्वीकार
आ० रामबली जी --- कहीं कोई गलती नहीं है . बस गीतिका छंद के बीच में कहीं कहीं हरि गीतिका भी आ गया है . आपके सुझाव से करते या धरते रहे करने पर छंद का अनुशासन बिगड़ जाएगा . मैंने अब हरिगीतिका को हटा दिया हा और पूरा गीत गीतिका में है . यहाँ ब्लॉग में अब सुधार करना उचित नहीं होगा .
आ० केवल जी गीतिका की रचना में असावधानी से हरिगीतिका टपक जाती है बस यही लापरवाही हुयी , मैने इसका पृथक से सुधार कर लिया है .सादर .
हम अकेले ही नहीं
संतप्त है इस भाव में
जल रहा है अखिल जग
भव्-दग्ध चंड अलाव में
नीव जो हमको मिली हम नींव वैसी धर रहे------- आपकी कविताओं में भावों की गंभीरता में पिरोये शब्दों की जादूगरी देखते ही बनती है . माधुरी और अनुशासन अद्वितीय है . बधाई आपको आदरणीय डॉ गोपाल नारायण जी
आ० गोपाल सर जी, सादर प्रणाम! इस नवगीत के प्रयास के लिये हार्दिक शुभकामनाएं....आपने यहां १४,१२ मात्राओं को लेकर सुंदर मुखड़ा लिखा फिर ....आप भटक गये. एक बार पुन: देख लें. सादर
आ० सतविंदर जी , शुक्रिया , सादर .
आ ० चौहान जी , बहुत बहुत आभार.
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