विद्रोहिणी सी बन गयी थी मैं
मेरी कुंठा और संत्रास
कैसे पनपे
नहीं जान पाई मै
और कितना असत्य था
उनका दुराग्रह
यह तब मैं न जानती थी
सच पूछो तो
नहीं चाह्ती थी जानना भी
कोई समझाता यदि
तो आग लग जाती वपुष में
अरि सा लगता वह
पर कोई देता यदि प्रोत्साहन
मुझे उस गलत दिशा में जाने का
तो वह लगता सगा सा
हितैषी और शुभेच्छु
संसार का सबसे प्रिय जीव
क्योंकि तब थी मैं
उसके प्यार में पागल
समझाकर हार गए पिता
माँ सिर्फ रोती या फिर कोसती
मुझे अपने कोख में रखने को
परिवार मे भाई और रिश्ते में मामा
बहन के विलाप से खिन्न
सभी घर के रहस्यवेत्ता मेरे भावों से अनभिज्ञ
प्रत्यक्षतः मेरे निर्णय के विरुद्ध
केवल फूफा ने ली मेरी भावना की सुधि
किया मेरे प्यार का समर्थन
और पिता भी डरते थे उनसे
या करते थे उनका अतीव सम्मान
कभी न की थी उनकी अवहेलना
वही मेरे मामले में रंच भी डिगे नहीं
नहीं सुनी एक भी उन्होंने तब फूफा की
स्पष्ट कह दिया –
‘यह जाना चाहती है यदि उसके साथ
तो बेशक चली जाए मैं नहीं रोकूंगा
पर फिर यह दरवाजे बंद हो जायेंगे
सदा के लिए
वापस नहीं आ पायेगी फिर किसी तौर भी’
मैं तथाकथित विद्रोहिणी
पिता से हार गयी
नहीं उठा पायी मैं वह साहसिक कदम
उसने भी रचकर व्याह किसी और कन्या से
तोड़ दिया मेरा भ्रम
उसी पाषाण पिता ने
उस तय हुए रिश्ते को फिर तोड़ा मेरे लिए
जिसे मैंने मना किया
एक राहत माँगी मैंने पिता ने दिया
ह्रदय पर पत्थर रख तयशुदा रिश्ते को
ठुकराया पापा ने
फिर वे
कहाँ-कहाँ नहीं भटके
कितनी जिल्लतें नहीं उठाई
पर नहीं किया कोई भी समझौता ऐसा-वैसा
जनक ने मेरे लिए
आज एक बेटी की माँ हूँ मैं भी
प्यारा छोटा घर है, वे हैं, मैं हूँ
खुश हूँ , प्रसन्न हूँ
आज सोचती हूँ कितनी नादान थी
उन बीते दिनों में
कितनी मार्गच्युत कितनी पथ भ्रष्ट
कितनी आवारा कितनी पागल
यदि दृढ नही होते पिता चट्टानवत
तो शायद कर बैठती मैं भी वही गलती
जो अक्सर कर बैठती है लड़कियां
अपनी जवानी मे जब नहीं होती
कुछ भी तमीज जीवन की, जग की
केवल होता है एक मधुर सपना
मायावी मरीचिका
प्यार का अन्धा-नशा
अपरिपक्व मन की दुर्निवार जिद
आज काप उठती हूँ सोचकर यह
कल बड़ी होगी मेरी भी बेटी
उस पर भी होगा सवार
वैसा ही पागलपन
तब क्या
मैं दृढ हो पाउंगी अपने पिता की तरह
या सिर्फ टेसुये बहांऊँगी माँ की तरह्
या फिर भरोसा करूंगी अपने पति पर
उनके पाषाण होने तक (मौलिक व् अप्रकाशित)Comment
आ० भाई डॉ गोपाल नरायन जी , इस उत्तम और हृदयस्पर्शी प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई l
कल बड़ी होगी मेरी भी बेटी
उस पर भी होगा सवार
वैसा ही पागलपन
तब क्या
मैं दृढ हो पाउंगी अपने पिता की तरह
या सिर्फ टेसुये बहांऊँगी माँ की तरह्
या फिर भरोसा करूंगी अपने पति पर
उनके पाषाण होने तक
.... वाह आदरणीय डॉ गोपाल नरायन श्रीवास्तव जी वाह महिला दिवस पर इस उत्तम कृति क्या हो सकती है। शीर्षक को सार्थिक करती, और पाठक को सोचने पर मजबूर करती इस हृदयस्पर्शी प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई सर।
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