रे पथिक, रुक जा! ठहर जा! आज कर कुछ आकलन
बाँच गठरी कर्म की औ’ झाँक अपना संचयन
हैं यहाँ साथी बहुत जो संग में तेरे चले
स्वप्न बन सुन्दर सलोने कोर में दृग की पले,
प्रीतिमय उल्लास ले सम्बन्ध संजोता रहा
या कपट,छल,तंज से निर्मल हृदय तूने छले ?
ऊर्ध्वरेता बन चला क्या मुस्कुराहट बाँटता ?
छोड़ आया ग्रंथियों में या सिसकता सा रुदन ?.......रे पथिक..
कर्मपथ होता कठिन, तप साधता क्या तू रहा ?
या नियतिवश संग…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on April 29, 2015 at 5:00pm — 22 Comments
स्वेच्छा से बिंधता रहा, बिना किसी प्रतिकार
हिय से हिय की प्रीत को, शूलदंश स्वीकार
ईश्वर प्रेम स्वरूप है, प्रियवर ईश्वर रूप
हृदय लगे प्रिय लाग तो, बिसरे ईश अनूप
कब चाहा है प्रेम ने, प्रेम मिले प्रतिदान
प्रेमबोध ही प्रेम का, तृप्त-प्राप्य प्रतिमान
भिक्षुक बन कर क्यों करें, प्रेम मणिक की चाह ?
सत्य न विस्मृत हो कभी, 'नृप हम, कोष अथाह' !
प्रवहमान निर्मल चपल, उर पाटन…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on April 26, 2015 at 11:30am — 19 Comments
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