तृषित ज़िंदगी ...
गाँव की
उदास और चुप शाम
टूटे छप्पर
हवाओं से
बिखरे तिनके
बयाँ कर रहे थे
ज़ुल्म आँधियों का
बिखरे
रोटियों के टुकड़े
और
टूटे हुए मटके में
दो हाथों के इंतज़ार में
ठहरा
तृप्ति को तरसता
अतृप्त पानी
कह रहा था
चली गयी
शायद
कोई ज़िंदगी
तृषित ही
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on May 31, 2017 at 2:00pm — 8 Comments
वो घर मेरा नहीं ...
कितना कठिन है
अपने घर का पता जानना
लौट जाते हैं
हर बार
आकर भी
घर के पास से हम
किस से पूछें पता
सभी मुसाफिर लगते हैं
अपने घरों से
अंजाने लगते हैं
जानते हैं
ये घर
हमारा नहीं
फिर भी
उसको घर मानते हैं
टूट जाते हैं
जो पत्ते शज़र से
फिर वो शज़र
उनका घर नहीं रह जाता
हो जाते हैं
वो हवाओं के हवाले
घर के पास होते हुए भी…
Added by Sushil Sarna on May 30, 2017 at 6:00pm — 9 Comments
विश्वास ....
क्या है विश्वास
क्या वो आभास
जिसे हम
केवल महसूस कर सकते हैं
और गुजार देते हैं ज़िंदगी
सिर्फ़ इस यकीन पर कि
एक दिन तो
उसे हम स्पर्श कर लेंगे
छू लेंगे एक छलांग में
आसमान को
या
वो है विश्वास
जिसे हम जानते हुई भी
कि वो
चाहे कितना भी
हमारी साँसों के करीब क्यूँ न हो
छोड़ देगा
हमारा साथ
निकल जाएगा चुपके से
हमारे क़दमों के नीचे से
जैसे
ज़मीन होने का…
Added by Sushil Sarna on May 22, 2017 at 8:30pm — 2 Comments
अँधेरे ...
किसने
स्वर दे दिए
रजनी तुम्हें
तुम तो
वाणीहीन थी
मूक तम को
किसने स्वरदान दे दिया
शून्यता को बींधते हुए
कुछ स्वर तो हैं
मगर
अस्पष्ट से
क्षण
तम के परिधान में
सुप्त से प्रतीत होते हैं
भाव
एकांत के दास हैं
शायद
तुम
इस तम की
वाणीहीनता का कारण हो
पर हाँ
ये भी सच है कि
तुम ही इस का
निवारण भी हो
दे दो प्राण
इन एकांत
अँधेरे को
छू लो इन्हें…
Added by Sushil Sarna on May 17, 2017 at 5:18pm — 6 Comments
Added by Sushil Sarna on May 15, 2017 at 7:23pm — 9 Comments
स्मृति पृष्ठ ...
रजनी के
श्यामल कपोलों पर
मेघों की बूंदों ने
व्यथित यादों के
पृष्ठों पर जैसे
सान्तवना का
आभासीय श्रृंगार कर डाला
दृग कलशों से
सजल वेदना
प्रीत की
पराकाष्ठा को
चेहरे की लकीरों में
शोभित करती रही
प्राण और देह में
जीवन संघर्ष चलता रहा
किसी को विस्मरण करने के
सभी उपचार
रेत की भित्ति से
ढह गए
थके नयन
आशा क्षणों की
गहन कंदराओं में…
Added by Sushil Sarna on May 9, 2017 at 3:59pm — 13 Comments
बोझ ...
हम
कहाँ जान पाते हैं
चेतन या अवचेतन में
अटकी हुई कुंठाओं की
मूक भाषा को
उनींदी सी अवस्था में
कुछ सिमटी हुई
आशाओं को
मन में उबलते
एक असीमित बोझ की
पहचान को
साँसों की थकान
अश्रु की व्यथा
और
रुदन के आह्वान को
तुम्हारे
स्पर्श की अनुभूति में लिप्त
क्षणों की
परिणिती के आभास ने
यूँ तो
अंजाने संताप से
मुक्ति का ढाढस दिया
किन्तु…
Added by Sushil Sarna on May 4, 2017 at 4:59pm — 12 Comments
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