सांसारिक स्वार्थग्रस्त प्रक्रियाओं से घबराकर
मुझसे ही कतराकर
चल बसी थी अकुलाती मेरी आस्था
उसके अंतिम संस्कार से पहले
टूटे विश्वास से फूटी तो थी रक्तधार
पर यह तो सदियों पुरानी बात है
समझ में न आए
कुलाँचते ख्यालों की अदृश्य रगों में
आज इतनी तपिश क्यूँ है
यादों के घावों को चोंच मार
छील गया कोई कैसे
कब से यहाँ जब कोई पास नहीं है
मेरी ही आन्तरिक कमज़ोरी को जानकर
तकलीफ़ भरे धूल…
ContinueAdded by vijay nikore on June 24, 2017 at 7:30am — 19 Comments
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