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Shashi bansal goyal's Blog – July 2015 Archive (7)

चुभन ( लघुकथा )

" ये कैसा बकवास प्रोजेक्ट तैयार किया है । छोड़ो , तुमसे न होगा ।अब सुरेखा ही इस प्रोजेक्ट पर काम करेगी । " कहते हुए प्रोजेक्ट की ' हार्ड कॉपी 'अनीता के बॉस ने अपने पास रख ली ।
आज सुरेखा को उस प्रोजेक्ट को प्रजेंट करना था । प्रोजेक्टर पर प्रजेंटेशन चल रहा था , अनीता विस्मित हो मामूली हेर-फेर से अपने ही प्रोजेक्ट पर तालियों की चुभन महसूस कर रही थी ।सहसा उसकी नज़रें बॉस की ओर घूम गईं , जो शरारती अंदाज़ में कह रही थीं , " और झटको मेरा हाथ ।"

मौलिक व अप्रकाशित ।

Added by shashi bansal goyal on July 26, 2015 at 10:31pm — 8 Comments

जैसा बीज़ वैसी फ़सल ( लघुकथा )

"जानती है ? नया मेहमान आने वाला है सुनकर, माँ-बाबूजी कितने खुश हैं । "

"और आप ? "

" हाँ , माँ कह रही थीं , बड़ी भाभी की दोनों संतानें लड़कियाँ हैं, इसलिए बहू से कहना कि वह सिर्फ़ बेटा ही जने । "

"आपने क्या कहा ? '

"कहना क्या ? मैं माँ से अलग थोड़े हूँ , और तू भी माँ की इच्छा के विरूद्ध तो जाने से रही ।"

"सो तो है , पर माँ जी की इच्छा पूरी हो , उसकी जवाबदेही आपके ही हाथों में है । "

"मेरे हाथों में ? पागल हो गई है क्या ? '

"लो भई ! साइंस ग्रेजुएट हो । इतना भी नहीं…

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Added by shashi bansal goyal on July 24, 2015 at 7:30pm — 19 Comments

फ़र्क ( लघुकथा )

"हम फलों से जरा लदे नहीं , हर राह चलता पत्थर फेंकना शुरू कर देता है । सिर्फ इसीलिए क्योंकि हम राह पर अनाथों के तरह फल-फूले हैं ।"

"हाँ भाई ! ठीक कहते हो । यदि  हम भी किसी बाग़ की शोभा होते तो नाज़ों से पलते , ठाठ से रहते । पत्थर की कोई छुअन हम तक नहीं पहुँच पाती ।"

"अजीब विडम्बना है , परवरिश गुलशन में मिले तो कीमत लाखों की , सरे राह क्या जन्मे ,आँख का कांटा हो गए ।"

"हूँ...। गोया कि बाग़ से इतर हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं । "

युवा पेड़ों के वार्तालाप को सुन पास खड़ा बूढ़ा वृक्ष बोल…

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Added by shashi bansal goyal on July 21, 2015 at 8:30pm — 10 Comments

गाँठ ( लघुकथा )

" नीरू ! क्या हमारे दाम्पत्य में इतनी दूरी आ गई है , कि अब तुम्हे तस्वीरों में भी मेरा साथ गवारा नहीं ? "

" हम साथ थे ही कब ? बस कोरा भ्रम था । "

" हमारे बच्चे ...? क्या इन्हें भी भ्रम कहोगी ? "

" नहीं ...। तब मुझे हमारे बीच तीसरे की उपस्थिति का भान नहीं था । "

" लौट भी तो आया हूँ , चाहो तो गाँठ बाँध के रख लो , ताकि फिर कभी ...।"

" गाँठ तो तब भी बाँधी गई थी न , जब हमने सप्तपदी ली थी ? "

मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by shashi bansal goyal on July 18, 2015 at 4:23pm — 3 Comments

प्रेयसी ( लघुकथा )

" ओफ्फो... ये बारिश भी न , एन दफ़्तर जाने के समय ही शुरू होती है ,पता नहीं क्या बैर है मुझसे । आज इतनी जरूरी मीटिंग है कि , अवकाश भी नहीं ले सकती ।" दीपा बड़बड़ाती बालकनी में खड़ी वर्षा रुकने की प्रतीक्षा करने लगी ।



तभी अंदर से लिखने में व्यस्त पति महोदय का आदेशात्मक स्वर कानों से टकराया , " दीपा ! समय है , तो एक प्याला चाय ही बना दो ।"



" जी ! बना देती हूँ ।" कह , मन ही मन बड़बड़ाते हुए रसोई में चली गई ।" बस जब देखो अपनी पड़ी रहती है , ये नहीं खुद गाड़ी से छोड़ आते । पर नहीं ।साहब… Continue

Added by shashi bansal goyal on July 14, 2015 at 7:29pm — 10 Comments

लाठी (लघुकथा )

" पिताजी , मुझे प्रोन्नत कर आप ही के दफ़्तर में स्थानांतरित कर दिया गया है ।निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ , बेटे या बॉस की भूमिका में किसे चुनूँ ? "
" 'अफकोर्स !' बॉस की ।रहा तुम्हारे अधीन काम करना , तो बेटा.. , पिता भले ही संतान को ऊँगली पकड़कर चलना सिखाये परंतु , उसे पिता होने का वास्तविक अहसास तभी होता है , जब संतान के कदम , आगे हों और हाथ लाठी बन पीछे ।

.
मौलिक व अप्रकाशित ।

Added by shashi bansal goyal on July 11, 2015 at 5:00pm — 10 Comments

लेपटॉप ( लघुकथा )

" अम्मा , दद्दा , छुटके ! ई देखो , नए फिसनवा की पेटी । ऊ सहर की सड़क पे मिळत रही । "

" तनिक खोल तो मुनिया , कउनो गहना- जेबर भए तो दरोग़ा के बुलवाई के पड़ी ।"

" खोलत हैं अम्मा , ई का ? भीतर तो दर्पन चिपकत रही , वो भी ठुस्स भेसईंन रंगत ।"

" का कहत है ? फैंक अबहीं । जुरूर ई सुसरा सहर वाले कौनों जादू-टोना करके पटकत गईल ।"

" पर दद्दा , ई के भीतरे जो ढेर डिबियाँ जमत रहि , ऊ का , का ? "

" जिज्जी , तनक उहे बी तो .....का पता , कौनो गोली- बिस्किट ही धरें हों । "

" सैतान !…

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Added by shashi bansal goyal on July 3, 2015 at 8:00pm — 9 Comments

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