उडी पतंग
छूट गयी जो डोर
कटी पतंग ।
कोख में मारा
बेटी को, जन्मे कैसे
कोई भी लाल ।
मेघों की दौड़
थक कर चूर, तो
बरसें कैसे ।
इच्छा किनारा
ज़िन्दगी की नदी में
आशा की नाव
संसार सार
जीवन है, सब हैं
शेष नि:स्सार
... मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neelam Upadhyaya on July 19, 2018 at 4:00pm — 9 Comments
न कर जिक्र
जब तक है जान
काहे की फिक्र
मन अंतस
जजवातों से भरा
पर अकेला
धरते धीर
शिखर पहुँचते
बैसाखी पर
क्या पा लिया था
ये तब जाना, जब
उसे खो दिया
खुशी ही नहीं
तल्खियाँ भी देती हैं
तनहाईयाँ
… मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neelam Upadhyaya on July 10, 2018 at 4:00pm — 17 Comments
संवेगों के झंझावात में
बहती रही सारी खुशियाँ
इतनी क्षणिक सिद्ध हुईं
आंसुओं के समंदर
डुबोते चले गए यादों को
इतनी कमजोर निकलीं
खामोशियों के बीच
गुस्से बदल गए नफ़रतों में
इतने अप्रत्याशित थे
आशाएँ और अभिलाषाएं
सिसक रही कहीं
दम तोड़ती सी ज्यों
पर जीवन की जुगुत्सा
जूझना सिखाती परिस्थिति से
सबक का एहसास कराते
सौहर्द्र, प्रेम और संभावनाओं का
निरंतरता, यथार्थता , शाश्वतता
यही जीवन है…
ContinueAdded by Neelam Upadhyaya on July 5, 2018 at 3:20pm — 14 Comments
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