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रगों को छेदते दुर्भाग्य के नश्तर गये होते
दुआयें साथ हैं माँ की नहीं तो मर गये होते
वजह बेदारियों की पूछ मत ये मीत हमसे तू
हमें भी नींद आ जाती अगर हम घर गये होते
नज़र के सामने जो है वही सच हो नहीं मुमकिन
हो ख्वाहिशमंद सच के तो पसे मंज़र गये होते
अगर होती फ़ज़ाओं में कहीं आमद ख़िज़ाओं की
हवायें गर्म होतीं और पत्ते झर गये होते
शिकायत भी नहीं रहती गमे फ़ुर्क़त भी होता कम
न होती आँख 'ब्रज' शबनम अगर कह कर गये…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 28, 2017 at 11:00am — 18 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 22, 2017 at 5:00pm — 23 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 9, 2017 at 4:30pm — 16 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 4, 2017 at 4:30pm — 14 Comments
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