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रगों को छेदते दुर्भाग्य के नश्तर गये होते
दुआयें साथ हैं माँ की नहीं तो मर गये होते
वजह बेदारियों की पूछ मत ये मीत हमसे तू
हमें भी नींद आ जाती अगर हम घर गये होते
नज़र के सामने जो है वही सच हो नहीं मुमकिन
हो ख्वाहिशमंद सच के तो पसे मंज़र गये होते
अगर होती फ़ज़ाओं में कहीं आमद ख़िज़ाओं की
हवायें गर्म होतीं और पत्ते झर गये होते
शिकायत भी नहीं रहती गमे फ़ुर्क़त भी होता कम
न होती आँख 'ब्रज' शबनम अगर कह कर गये होते
(मैलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
आदरणीय नीरज जी,
हार्दिक आभार. जल्दी में एक 'ऐ' छूट गया था :
वजह बेदारियों की पूछ मत हम से तू ऐ हमदम
हमें भी नींद आ जाती अगर हम घर गये होते
सादर
आदरणीय बृजेश जी,
खूबसूरत ग़ज़ल हुई है. दाद के साथ मुबारकबाद.
'रगें को' व्याकरणिक रूप से गलत है 'रगों को' कर लें.
और अगर अच्छा लगे तो दूसरे शेर को कुछ यूं कर सकते है :
वजह बेदारियों की पूछ मत हम से तू हमदम
हमें भी नींद आ जाती अगर हम घर गये होते
सादर
सुन्दर ग़ज़ल जनाब बृजेश जी. मुबारकबाद. ख़ासकर ये दो अशआर बड़े सुन्दर हुए हैं:
अगर होती फ़ज़ाओं में कहीं आमद ख़िज़ाओं की
हवायें गर्म होतीं और पत्ते झर गये होते
शिकायत भी नहीं रहती गमे फ़ुर्क़त भी होता कम
न होती आँख में शबनम अगर कहकर गये होते
आदाब, बेहतरीन ग़ज़ल
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