For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल....दुआयें साथ हैं माँ की वगरना मर गये होते-बृजेश कुमार 'ब्रज'

1222 1222 1222 1222
रगों को छेदते दुर्भाग्य के नश्तर गये होते
दुआयें साथ हैं माँ की नहीं तो मर गये होते


वजह बेदारियों की पूछ मत ये मीत हमसे तू
हमें भी नींद आ जाती अगर हम घर गये होते

नज़र के सामने जो है वही सच हो नहीं मुमकिन
हो ख्वाहिशमंद सच के तो पसे मंज़र गये होते

अगर होती फ़ज़ाओं में कहीं आमद ख़िज़ाओं की
हवायें गर्म होतीं और पत्ते झर गये होते

शिकायत भी नहीं रहती गमे फ़ुर्क़त भी होता कम
न होती आँख 'ब्रज' शबनम अगर कह कर गये होते 
(मैलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

Views: 948

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 2, 2017 at 11:38pm
स्नेहमयी टिप्पड़ी के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय लक्षमण धामी जी..सादर
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 2, 2017 at 12:06pm
आ. बृजेश भाई जी, हार्दिक बधाई ।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 31, 2017 at 7:53pm
आभार आदरणीय नीरज जी..आपका सुझाव खूबसूरत है..विशेषकर सानी।
Comment by Niraj Kumar on August 30, 2017 at 4:50pm

आदरणीय नीरज जी,

हार्दिक आभार. जल्दी में एक 'ऐ' छूट गया था : 

वजह बेदारियों की पूछ मत हम से तू ऐ हमदम 
हमें भी नींद आ जाती अगर हम घर गये होते

सादर 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 30, 2017 at 2:44pm
आदरणीय नीरज जी रचना पटल पे आपका हार्दिक अभिनन्दन है।जी आदरणीय व्याकरणिक दृष्टि से ये उचित नहीं है।दरअसल पहले 'रगें तक' था आदरणीय समर जी की सलाह पे 'तक' को 'को' किया।लेकिन रगें भूलवश रह गया।सुधार करता हूँ।दूसरे शेर के लिए आपका सुझाव खूबसूरत है लेकिन बहर से खारिज है..सादर
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 30, 2017 at 2:39pm
आदरणीय राज नवादवी जी आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा सौभाग्य है..आपका बहुत बहुत धन्यवाद
Comment by Niraj Kumar on August 29, 2017 at 6:05pm

आदरणीय बृजेश जी,

खूबसूरत ग़ज़ल हुई है. दाद के साथ मुबारकबाद.

'रगें को'  व्याकरणिक रूप से गलत है 'रगों को' कर लें.

और अगर अच्छा लगे तो दूसरे शेर को कुछ यूं कर सकते है :

वजह बेदारियों की पूछ मत हम से तू हमदम 
हमें भी नींद आ जाती अगर हम घर गये होते

सादर 

  

Comment by राज़ नवादवी on August 29, 2017 at 2:29pm

सुन्दर ग़ज़ल जनाब बृजेश जी. मुबारकबाद. ख़ासकर ये दो अशआर बड़े सुन्दर हुए हैं: 

अगर होती फ़ज़ाओं में कहीं आमद ख़िज़ाओं की
हवायें गर्म होतीं और पत्ते झर गये होते

शिकायत भी नहीं रहती गमे फ़ुर्क़त भी होता कम
न होती आँख में शबनम अगर कहकर गये होते

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 29, 2017 at 10:11am
बहुत बहुत आभार आदरणीय अजय शर्मा जी..
Comment by ajay sharma on August 28, 2017 at 11:37pm

आदाब, बेहतरीन ग़ज़ल 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
22 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
yesterday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
yesterday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"असमंजस (लघुकथा): हुआ यूॅं कि नयी सदी में 'सत्य' के साथ लिव-इन रिलेशनशिप के कड़वे अनुभव…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब साथियो। त्योहारों की बेला की व्यस्तता के बाद अब है इंतज़ार लघुकथा गोष्ठी में विषय मुक्त सार्थक…"
Thursday
Jaihind Raipuri commented on Admin's group आंचलिक साहित्य
"गीत (छत्तीसगढ़ी ) जय छत्तीसगढ़ जय-जय छत्तीसगढ़ माटी म ओ तोर मंईया मया हे अब्बड़ जय छत्तीसगढ़ जय-जय…"
Thursday
LEKHRAJ MEENA is now a member of Open Books Online
Wednesday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service