“माँ वो कोठी वाली मैडम हर दीवाली पर लक्ष्मी जी के पैर बनाती हैं तू क्यूँ नहीं बनाती? इसी लिए हमारे घर लक्ष्मी नहीं आती क्या?”रिक्कू ने बड़े भोलेपन से पूछा|
”बेटा, हमारे घर भी एक बार लक्ष्मी आई थी पर तेरे बापू ने दारु के लिए उसे बेच दिया अब वो कभी नहीं आएगी”|
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(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Added by rajesh kumari on October 20, 2014 at 3:30pm — 12 Comments
धरती से नीले अम्बर तक
बिना किसी व्यवधान
इठलाती तितली सी चंचल
भरती रहे उड़ान
ना कोई सीमा ना कोई बंद
हो कितनी स्वछन्द
ऐ कविता!
कभी करुण रस से आप्लावित
भीगे आखर से बोझिल
कभी डूब शिंगार झील में
आती नख- शिख तक झिलमिल
कभी गरल तू विरह का पीती
कभी नेह मकरंद
हो कितनी स्वछन्द
ऐ कविता!
कभी परों पर लगा बसंती
रंग अबीर गुलाबी लाल
कहीं बिठाती दीये…
ContinueAdded by rajesh kumari on October 9, 2014 at 12:50pm — 16 Comments
२१२२ २१२२ २१२२
ढूँढती इक मौज तूफां में किनारा
क्यूँ समझता ही नहीं सागर ईशारा
तिश्नगी उसको कहाँ तक ले गई है
अक्स अपना झील में उसने उतारा
फ़र्क क्या पड़ता चमकती चाँदनी को
छटपटाता फिर कहीं टूटा सितारा
फट गया जो पैरहन तो ग़म नहीं है
चाक दिल सिलता नहीं देखो दुबारा
डोलती किश्ती बढ़ाती हाथ अपना
उस तरफ़ तुम मोड़ लो अपना शिकारा
खोल दो गर तुम लटकती उस पतंग को
लोग…
ContinueAdded by rajesh kumari on October 4, 2014 at 10:30am — 27 Comments
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