हाँ, तुम बंट गए उस दिन कबीर
अहो कबीर !
कही पढा था या सुना
तम्हारी मृत्यु पर
लडे थे हिन्दू और मुसलमान
जिनको तुमने
जिन्दगी भर लगाई फटकार
वे तुम्हारी मृत्यु पर भी
नहीं आये बाज
और एक
तुम्हारी मृत देह को जलाने
तथा दूसरा दफनाने
की जिद करता रहा
और तुम
कफ़न के आवरण में बिद्ध
जार-जार रोते इस मानव प्रवृत्ति पर
अंततः हारकर मरने के बाद…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 28, 2015 at 6:00pm — 24 Comments
पौरुष ने उठाया हाथ
सहनशीलता ने
कर तो लिया बर्दाश्त
पर चेहरा विकृत हुआ
अधर काँपे
आँखे पनिआयी
झट वह चौके में चली गयी
बेटी दौड़ी-दौड़ी आयी
क्या हुआ माँ ?
कैसी आवाज आयी ?
और यह क्या तू रोती है ?
नहीं बेटी, ये लकड़ियाँ ज़रा गीली है
धुंआ बहुत देती है
आँख में गडता है, पानी निकलता है
बेटी ने कहा – ‘ माँ !
गीली लकड़ी का
तुमसे क्या सम्बन्ध है ?
माँ ने कहा ‘ हम दोनों
जलती…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 12, 2015 at 4:30pm — 11 Comments
सहसा
छा जाता है आवेश
कुछ लगता है सनसनाने
मस्तिष्क में होने लगता है
घमासान
हाथ हठात पहुँचते है
लेखनी पर
इतना भी नहीं होता
कि तलाश लें
कोई कायदे का कागज
नोच लेता है हाथ
किसी अखबार का टुकड़ा
या किसी रद्दी का खाली भाग
और दौड़ने लगते है उस पर
अक्षर निर्बाध
अवचेतन सा मन
मानो कोई उड़ेल देता है
उसमें भावों की सम्पदा
जो स्वस्थ चित्त में
चाह कर भी नहीं उभरता…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 4, 2015 at 8:44pm — 5 Comments
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