ग़ज़ल
२१२२ ,२१२२ ,२१२२ ,२
बेबसी की इंतिहा जब आह सुनती है
आँसुओं से बैठ कर फिर वक़्त बुनती है.
मरहले दर मरहले बढ़ती रही वो धुँध
जिंदगी क्यों, ये न जाने राह चुनती है.
जीभ से जो पेट तक है आग का दरिया
फलसफों को भूख जिसमें रोज़ धुनती है.
वो थका है कब हमारा इम्तिहाँ ले कर
रेत है जो भाड़ की हर वक़्त…
Added by dr lalit mohan pant on November 29, 2013 at 1:30am — 10 Comments
रचना पूर्व प्रकाशित होने के कारण तथा ओ बी ओ नियमों के अनुपालन के क्रम मे प्रबंधन स्तर से हटा दी गयी है, लेखक से अनुरोध है कि भविष्य में पूर्व प्रकाशित रचनाएँ ओ बी ओ पर पोस्ट न करें | (08.12.2013 / 22:35)
एडमिन
2013120807
Added by dr lalit mohan pant on November 21, 2013 at 12:00am — 10 Comments
फिर बारिशें होने लगती हैं......
कभी कभी
एक दावानल सा भड़क जाता है
मन के
हरे भरे /महकते
चहचहाते /किलोल करते
गर्जनाओं और वर्जनाओं के / जंगल में
डर
चीखों और चीत्कारों के साथ
हावी हो जाता है....
बेचैनी / घबराहट / घुटन / यंत्रणा
जैसे शब्द
किसी क्षण की चरम स्थितियों…
Added by dr lalit mohan pant on November 14, 2013 at 1:30am — 11 Comments
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