हौसलों के पंख ओढ़े
स्वप्न फिर थिरके सभी,
चूम कर अपना धरातल
उड़ चले विस्तार को...
क्या हुआ गत वक्त की यदि बेड़ियाँ थीं क्रूरतम
क्या हुआ जख्मी हृदय यदि दर्द से होते थे नम
स्वप्न में कण भर धड़कते प्राण जब तक शेष हैं
जीतती है आस तब तक, हारते विद्वेष हैं
हर विगत की आँच पर रख
नर्म भावों की छुअन,
बढ़ चले हैं स्वप्न फिर
युग के नवल शृंगार को...
हो निशा चाहे घनेरी ये चलेंगे पार तक
राह नित गढ़ते बढ़ेंगे रौशनी केे द्वार तक…
Added by Dr.Prachi Singh on December 27, 2015 at 1:00am — 13 Comments
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