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Sushil Sarna's Blog (876)

जाल .... ( 4 5 0 वीं कृति)

जाल .... ( 4 5 0 वीं कृति)

बहती रहती है

एक नदी सी

मेरे हाथों की

अनगिनित अबोली रेखाओं में

मैं डाले रहता हूँ एक जाल

न जाने क्या पकड़ने के लिए

हाथ आती हैं तो बस

कुछ यातनाएँ ,दुःख और

काँच की किर्चियों सी

चुभती सच्चाईयाँ

डसते हैं जिनके स्पर्श

मेरे अंतस में बहती

जीत और हार की धाराओं को

काले अँधेरों में भी मुझे

अव्यक्त अभियक्तियों के रँग

वेदना के सुरों पर

नृत्य करते नज़र आते हैं

नदी

हाथों की…

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Added by Sushil Sarna on April 24, 2019 at 1:24pm — 5 Comments

प्रतीक्षा लौ ...

प्रतीक्षा लौ ...

जवाब उलझे रहे

सवालों में

अजीब -अजीब

ख्यालों में

प्रतीक्षा की देहरी पर

साँझ उतरने लगी

बेचैनियाँ और बढ़ने लगीं

ह्रदय व्योम में

स्मृति मेघ धड़कने लगे

नैन तटों से

प्रतीक्षा पल

अनायास बरसने लगे

सवाल

अपने गर्भ में

जवाबों को समेटे

रात की सलवटों पर

करवटें बदलते रहे

अभिव्यक्ति

कसमसाती रही

कौमुदी

खिलखिलाती रही

संग रैन के

मन शलभ के प्रश्न

बढ़ते रहे

जवाब…

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Added by Sushil Sarna on April 22, 2019 at 6:25pm — 8 Comments

अधूरी सी ज़िंदगी ....

अधूरी सी ज़िंदगी ....

कुछ

अधूरी सी रही

ज़िंदगी

कुछ प्यासी सी रही

ज़िंदगी

चलते रहे

सीने से लगाए

एक उदास भरी

ज़िंदगी

जीते रहे

मगर अनमने से

जाने कैसे

गुफ़्तगू करते

कट गयी

अधूरी सी ज़िंदगी

ढूंढते रहे

कभी अन्तस् में

कभी जिस्म पर रेंगते

स्पर्शों में

कभी उजालों में

कभी अंधेरों में

निकल गई छपाक से

जाने कहाँ

हमसे हमारी

अधूरी सी ज़िंदगी

बरसती रही…

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Added by Sushil Sarna on April 20, 2019 at 7:26pm — 6 Comments

वेदना ...

वेदना ...

अंतस से प्रस्फुरित हो

अधर तीर पर

ठहर गए कुछ शब्द

मौन के आवरण को

भेदने के लिए

अंतस के उजास पर

तिमिर का अट्हास

मानो वेदना का चरम हो

स्पर्शों की आँधी

निर्ग्रंथ देह पर

बिखरी अनुभूतियों के

प्रतिबिम्ब अलंकृत कर गई

रश्मियाँ अचंभित थी

निर्ग्रंथ देह पर

अनुभूतियों के

विप्रलंभ शृंगार को देखकर

क्या यही है प्रेम चरम की परिणीति

तृषा और तृप्ति के संघर्ष का अंत

नैनों तटों पर तैरती

अव्यक्त…

Added by Sushil Sarna on April 17, 2019 at 8:06pm — 6 Comments

क्षणिकाएँ :

क्षणिकाएँ :

१.

झाँक सका है कौन

जीवन सत्य के गर्भ में

निर्बाध गति

मौन यति

शाँत या अशांत

बढ़ता है सदा

अदृश्य और अज्ञात लक्ष्य की ओर

हो जाता है सम्पूर्ण

एक अपूर्णता के साथ

एक जीवन

२.

लिख गया कोई

खारी बूँदों से

रक्तिम गालों पर

विरह के

स्मृति ग्रन्थ

रह गई दृष्टि

निहारती

सूने चिन्हों से अलंकृत

अवसन्न से

प्रेम पंथ

३.

हो गई समर्पित

जिसे अपना मान

कर गया वही…

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Added by Sushil Sarna on April 15, 2019 at 7:59pm — 8 Comments

उम्र....

उम्र ...



गर्भ से चलती है

धरती पर पलती है

आँखों को मलती है

संग साँसों के चलती है

उम्र

जिस्म की दासी है

युग युग से प्यासी है

ख़ुशी और उदासी है

छलती ही जाती है

उम्र

मस्तानी जवानी है

अधूरी सी कहानी है

लहरों की रवानी है

रेत सी फिसल जाती है

उम्र

काल की दुपहरी है

चिताओं पर ठहरी है

ज़माने से बहरी है

धधक जाती है चुपके से

उम्र

कल तक जो चलती थी

आशाओं…

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Added by Sushil Sarna on April 12, 2019 at 5:16pm — 4 Comments

कुछ क्षणिकाएं :

कुछ क्षणिकाएं :

उल्फ़त की निशानी

आँख में

थिरकता

बूँद भर पानी

...........................

समाज

अंधेरों के घेरों में

सभ्यता

न साँझ में

न सवेरों में

..........................

माँ की लाश

बिलखता विश्वास

टूटा आकाश

बेटी के पास

.............................

जीवन रंग

हुए बदरंग

रिश्तों के संग

...............................

दृष्टि में विकार

बढ़ता व्यभिचार

नारी…

Added by Sushil Sarna on April 11, 2019 at 7:51pm — 2 Comments

पांच दोहे :

पांच दोहे :

माँ की पूजा जो करे, तज कर सारे काम।

उसके जीवन में सदा ,पूरन होते काम।।

जयकारों से गूँजता, है माँ का दरबार।

दरस मात्र से जीव का, होता बेड़ा पार।।



माँ के पावन नाम की, महिमा अपरम्पार।

बाल न बाँका भक्त का, कर पाता संसार।।



माँ की पूजा-अर्चना, करता जो निष्काम।

मिल जाता उस भक्त को , माँ का पावन धाम।।

चलकर नंगे पाँव जो, आता तेरे धाम।

पूरन होते जीव के, मुश्किल सारे काम।।

सुशील सरना…

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Added by Sushil Sarna on April 10, 2019 at 5:44pm — 8 Comments

शृंगार रास के दोहे : ... पागल मन की मर्ज़ियाँ

पागल मन की मर्ज़ियाँ, नैनों के उत्पात। 

स्पर्श करें गुस्ताखियाँ, सपना लगती रात।१ ।

ये आँखों की सुर्खियाँ, बिखरे-बिखरे बाल। 

अधरों की शैतानियाँ ,करें उजागर गाल।२ ।

यौवन रुत में जब करें , नैन हृदय पर वार। 

घूंघट पट में लाज के, शरमाता शृंगार।३ ।

नैन करें जब नैन से, अंतर्मन की बात। 

दो पल में सदियाँ मिटें ,रात लगे सौग़ात।४ ।

बंजारे सा मन हुआ, बंजारी सी…

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Added by Sushil Sarna on April 5, 2019 at 3:42pm — 6 Comments

दोहे ... एक भाव कई रूप ... नर से नारी माँगती ..

दोहे ... एक भाव कई रूप ...

नर से नारी माँगती ..

नर से नारी माँगती, बस थोड़ा सा प्यार।

थोड़े से उस प्यार पर, तन-मन देती वार।।

नर से नारी माँगती , सपनों का शृंगार।

नारी तन का नर अधम ,करता फिर व्यापार।।

नर से नारी माँगती , जीवन भर का साथ।

ले हाथों में हाथ वो, माने उसको नाथ।।

नर से नारी माँगती,बाहों का संसार।

बन जाता फिर प्रेम वो, माथे का शृंगार ।।

नर से नारी माँगती ,माधव जैसा प्यार।

बन…

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Added by Sushil Sarna on March 25, 2019 at 6:00pm — 13 Comments

होली के दोहे :

होली के दोहे :

हिलमिल होली खेलिए, सब अपनों के संग।

रिश्तों में रस घोलिए, मिटा घृणा के रंग।। १

रंगों की बौछार में, बोले मन के तार।

अधर तटों को दीजिए, साजन अपना प्यार।। २

होली के हुड़दंग में , सिर चढ़ बोले भाँग।

करें ठिठोली मुर्गियाँ, मुर्गे देते बाँग।।३

तन-मन भीगे रंग में, मचली मन की प्यास।

अवगुंठन में नैन से, नैन रचाएं रास। ४

चाहे जितना कीजिए, होली पर हुड़दंग।

लग कर गले मिटाइये,…

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Added by Sushil Sarna on March 22, 2019 at 7:00pm — 8 Comments

होली पर कुछ दोहे

मंच को होली की मुबारक के साथ इस अवसर पर कुछ दोहे :

होली के त्योहार पर ,इतना रखना ध्यान।

नारी का अक्षत रहे ,रंगों में सम्मान।।

गौर वर्ण पर रंग ने, ऐसा किया धमाल।

नैनों नें की मसखरी, गाल हो गए लाल।।

प्रेम प्यार का राग है होली का त्योहार ।

देह देह पर सज रही, रंगों की बौछार ।।

होली का त्योहार है, रिश्तों की मनुहार।

मन मुटाव को भूल कर,गले मिलें सौ बार।।

संयत होली खेलिए, रहे सुरक्षित चीर।

टूट न जाए…

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Added by Sushil Sarna on March 19, 2019 at 8:04pm — 2 Comments

2 लघु रचनाएँ : इंतज़ार

2 लघु रचनाएँ : इंतज़ार
1.
कितने अज़ाब हैं
उल्फ़त के सफ़हात में
मिलता नहीं
क्यूँ चैन
फाड़ के भी
इंतज़ार के सफ़हात को

..................................
2
आंखें
कर बैठीं
इंतज़ार से
बग़ावत
अश्क
कर बैठे
चश्म से अदावत
उल्फत करती रही
इंतज़ार
ख़ारी लकीरों में

सुशील सरना

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on March 19, 2019 at 5:30pm — 1 Comment

ख़्वाब ....

ख़्वाब ....

चोट लगते ही
छैनी की
शिला से आह निकली
जान होती है
पत्थर में भी
ये अहसास हुआ आज
छीलता रहा पत्थर को
निकालना था एक ख़्वाब
बुत की शक्ल में
उसके गर्भ से
रो दी शिला
जब
ख़्वाब
बुत में
धड़कने लगा
क्या हुआ
जो रिस रहा था खून
बुतगर के हाथ से

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on March 12, 2019 at 5:00pm — 4 Comments

अंतिम स्वीकार ....

अंतिम स्वीकार ....

जितना प्रयास किया
आँखों की भाषा को
समझने का
उतना ही डूबता गया
स्मृति की प्राचीर में
रिस रही थी जहाँ से
पीर
आँसूं बनकर
स्मृति की दरारों से
रह गया था शेष
अंतर्मन में सुवासित
अंतिम स्वीकार

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on February 13, 2019 at 7:27pm — 4 Comments

अंतिम साँझ .......

अंतिम साँझ .......

लिख लेने दो
एक अंतिम साँझ
मुझे
साँझ के पन्नों पर
अभिलाषाओं की वेदी पर
साँसों की देहरी पर
व्योम के क्षितिज़ पर
स्मृति के बिम्बों पर
मौन की गुहा में
स्पर्शों की गंध पर
श्वासों के आलिंगन में
अन्तस् के दर्पण पर
बिंदु के अस्तित्व में
लिख लेने दो
मुझे
प्राणों में लीन प्राणों की
अंतिम
साआआआं ... झ


सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on February 6, 2019 at 7:24pm — 4 Comments

एक सच ...

एक सच ...

एक सच
व्यथित रहा
अंतस के अनंत में
एक सच
लीन रहा
मिलन के बसंत में
एक सच
ठहर गया
दृष्टि के दिगंत में
एक सच
प्रकम्पित हुआ
आभासी कंत में
एक सच
बंदी बना
अभिलाषी कंज में
एक सच
शकुंत बना
अवसान के अंत में
एक सच
अदृश्य रहा
जीवन के प्रपंच में
एक सच
शून्य बना
अंत के अनंत में

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित



Added by Sushil Sarna on February 4, 2019 at 5:44pm — 6 Comments

अनसोई कविता............

अनसोई कविता............

कभी देखे हैं
अनसोई कविताओं के चेहरे
अँधेरे में टटोटलना
मेरे साँझ से कपोलों पर
रुकी कविताओं के
सैलाब नज़र आएँगे
छू कर देखना
उसमें आहत
अनसोई कविताओं के चेहरे
बेनकाब
नज़र आएँगे

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on February 2, 2019 at 6:23pm — 2 Comments

इतनी सी बात थी ....

इतनी सी बात थी ....

एक शब के लिए

तुम्हें माँगा था

अपनी रूह का

पैरहन माना था

मेरी इल्तिज़ा

तुम समझ न सके

तुम ज़िस्म की हदों में

ग़ुम रहे

मेरा समर्पण

तुम्हारी रूह पर

दस्तक देता रहा

लफ्ज़

अहसासों की चौखट पर

दम तोड़ते रहे

रूह का परिंदा

करता भी तो क्या

हार गया

दस्तक देते -देते

उल्फ़त की दहलीज़ पर

तुम

समझ न सके

बे-आवाज़ जज़्बात को

ज़िस्म की हदों में कहाँ

उल्फ़त के अक़्स होते…

Continue

Added by Sushil Sarna on January 30, 2019 at 6:39pm — 4 Comments

पूर्ण विराम :

पूर्ण विराम :

ओल्ड हो जाता है जब इंसान

ऐज हो जाती है लहूलुहान अपने ही खून के रिश्तों से

होम में जल जाते हैं सारे कोख के रिश्ते

बदल जाता है

एक घर

जब

ढाँचा चार दीवारों का

पुराना ज़िस्म

जब

पुराना सामान हो जाता है

वो

ओल्ड ऐज होम का

सामान हो जाता है

अपनों के हाथों पड़ी खरोंचों के

झुर्रीदार चेहरे

मृत संवेदनाओं की

कंटीली झाड़ियों के साथ

शेष जीवन व्यतीत करने वालों के लिए

अंतिम सोपान हो जाता…

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Added by Sushil Sarna on January 28, 2019 at 1:30pm — 6 Comments

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