अहसासों के टोस्ट: ३ क्षणिकाएं
मर्म
सपनों का
बिना
काया का
साया
न अपना
न पराया
.................
कितने लम्बे
सपनों के धागे
सोच के पाँव
आसमाँ से आगे
नैन जागें
तो ये टूटें
नैन सोएं
तो ये जागें
......................
सर्द सवेरा
चाय की प्याली
उठती भाप
अहसासों के टोस्ट
नज़रों की चुस्कियाँ
उम्र के ठहराव पर
काँपते हाथों सी
ठिठुरती…
Added by Sushil Sarna on November 19, 2018 at 2:30pm — 6 Comments
इस दर्पण में ......
नहीं
मैं नहीं देखना चाहता
स्वयं का ये रूप
इस दर्पण में
नहीं देखना चाहता
स्वयं को इतना बड़ा होता
इस दर्पण में
मैं
सिर्फ और सिर्फ
देखना चाहता हूँ
अपना स्वच्छंद बचपन
इस दर्पण में
गूंजती हैं
मेरे कानों में
आज तक
माँ की लोरियाँ
ज़रा सी चोट पर
उसकी आँखों में
अश्रुधार
मेरी भूख पर
उसके दूध में लिपटा
उसका
स्निग्ध दुलार
कहाँ…
Added by Sushil Sarna on November 15, 2018 at 6:40pm — 4 Comments
3 क्षणिकाएँ....
लीन हैं
तुम में
मेरी कुछ
स्वप्निल प्रतिमाएँ
देखो
खण्डित न हो जाएँ
ये
पलकों की
हलचल से
...................
Added by Sushil Sarna on November 14, 2018 at 1:00pm — 11 Comments
कसमों की डोरी ....
चलो
कोशिश करते हैं
जीवन को
कसमों की डोरी में
रस्मों की गंध से
अलंकृत कर दें
चलो
कोशिश करते हैं
हिना के रंग को
स्नेह अभिव्यक्ति के
अनमोल पलों से
अमर कर दें
चलो
कोशिश करते हैं
अपरिचिति श्वासों को
हवन कुंड की अग्नि के समक्ष
एक दूजे में समाहित कर
सृष्टि की पावनता को
श्रृंगारित कर दें
चलो
कोशिश करते हैं
लकीरों में छुपे
अपने…
Added by Sushil Sarna on October 29, 2018 at 7:44pm — 10 Comments
शान्ति :
बहुत आज़मा लिया
शान्ति के लिए
युद्ध को
एक बार तो
प्यार को भी
आज़माया होता
शान्ति के लिए
...............................
होड़ ...
बारूद के धुऐं में
झुलस गई
ज़िंदगी
सो गए
सीमाओं पर
गोलियों के बिछौने पर
खामोशियों का
कफ़न ओढ़े
पथराये से
खामोश रिश्ते
जाने क्या पाने की होड़ में
सीमा पर
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on October 29, 2018 at 4:34pm — 12 Comments
ज़िंदगी ....
तुम आईं
तो संवरने लगी
ज़िंदगी
साथ जीने
और मरने के
अर्थ
बदलने लगी
ज़िंदगी
मौसम बदला
श्वासें बदलीं
अभिव्यक्ति की साँझ में
बिखरने लगी
ज़िंदगी
प्रतीक्षा
मौन हुई
शब्द शून्य हुए
चुपके-चुपके
स्मृति के परिधान में
सिमटने लगी
ज़िंदगी
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on October 27, 2018 at 4:00pm — 8 Comments
मानव छंद में प्रयास :
मेरे मन को जान गयी ।
फिर भी वो अनजान भयी।।
शीत रैन में पवन चले।
प्रेम अगन में बदन जले।।
..................................
देह श्वास की दासी है।
अंतर्घट तक प्यासी है।।
मौत एक सच्चाई है।
जीवन तो अनुयायी है ।।
................................
रैना तुम सँग बीत गई।
मैं समझी मैं जीत गई।।
अब अधरों की बारी है।
तृप्ति तृषा से हारी है।।
सुशील सरना
मौलिक एवं…
Added by Sushil Sarna on October 23, 2018 at 8:30pm — 6 Comments
नए आयाम ....
मुझे
नहीं सुननी
कोई आवाज़
मैंने अपने अन्तस् से
हर आवाज़ के साथ जुड़े हुए
अपनेपन की अनुभूति को
तम की काली कोठरी में
दफ़्न कर दिया है
अपनेपन का बोध
कब का मिटा दिया है
अपनेपन की सारी निधियाँ
लुटा चुका हूँ
अब तो मैं
किसी स्मृति का अवशेष हूँ
आवाज़ों के मोह बंधन में
मुझे मत बाँधो
हम दोनों के मन
एक दूसरे की अनुभूतियों के
अव्यक्त स्वरों से
गुंजित हैं
आवाज़ों को चिल्लाने दो…
Added by Sushil Sarna on October 22, 2018 at 7:42pm — 6 Comments
रावण :
एक रावण
जला दिया
राम ने
एक रावण
ज़िंदा रहा
मन में
किसी
राम के इंतज़ार में
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on October 19, 2018 at 9:24pm — 1 Comment
अनकहा ...
अभिव्यक्ति के सुरों में
कुछ तो अनकहा रहने तो
अंतस के हर भाव को
शब्दों पर आश्रित मत करो
अंतस से अभिव्यक्ति का सफर
बहुत लम्बा होता है
अक्सर इस सफ़र में
शब्द
अपना अर्थ बदल देते हैं
शब्दों अवगुंठन में
अभिव्यक्ति
मात्र मूक व्यथा का
प्रतिबिम्ब बन जाती है
भावों की घुटन
मन कंदराओं में
घुट के रह जाती है
जीने के लिए
कुछ तो शेष रहने दो
अभिव्यक्ति के गर्भ में
कुछ तो…
Added by Sushil Sarna on October 17, 2018 at 6:30pm — 6 Comments
पागल मन ..... (400 वीं कृति )
एक
लम्बे अंतराल के बाद
एक परिचित आभास
अजनबी अहसास
अंतस के पृष्ठों पे
जवाबों में उलझा
प्रश्नों का मेला
एकाकार के बाद भी
क्यूँ रहता है
आखिर
ये
पागल मन
अकेला
तुम भी न छुपा सकी
मैं भी न छुपा सका
हृदय प्रीत के
अनबोले से शब्द
स्मृतियाँ
नैन घनों से
तरल हो
अवसन्न से अधरों पर
क्या रुकी कि
मधुपल का हर पल
जीवित हो उठा
मन हस पड़ा…
Added by Sushil Sarna on October 15, 2018 at 7:48pm — 14 Comments
३ क्षणिकाएं....
भावनाओं की घास पर
ओस की बूंदें
रोती रही
शायद
बादलों को ओढ़कर
रात भर
चांदनी
... ... ... ... ... ... .
गोद दिया
सुबह की ओस ने
गुलाब को
महक
तड़पती रही
अहसासों के बियाबाँ में
यादों की नोकों पर
... ... ... .. .. .. .. . .
आकाश
ज़िंदगी भर
इंसान को
छत का सुकून देता रहा
उसे
धूप दी, पानी दिया ,
ईश के होने का
अहसास दिया
मगर
वह रे इंसान
आया जो…
Added by Sushil Sarna on October 8, 2018 at 7:07pm — 18 Comments
अजनबी लगता है ... ...
न वज़ह पूछी
न मौका मिला
वक्त सरकता रहा
कोई अपना
हर लम्हा
अजनबी लगता रहा
किसे आवाज़ दूँ
तारीकियों की क़बा में
उजालों को ओढ़ कर
खो गयी कोई तलाश
टूट गया
उसके साये होने का भ्रम
बावज़ूद ज़िस्मानी करीबी के
वो हर नफ़स
जाने क्यूँ
अजनबी लगता रहा
झूठ है
वो अजनबी है
मेरी तिश्नगी का
समंदर है वो
मेरे हर ख्वाब का
मंज़र है वो
मेरे ज़ह्न में सदियों से…
Added by Sushil Sarna on October 5, 2018 at 6:07pm — 7 Comments
बेज़ुबान पहचान ...
कितनी खामोशी होती है
कब्रिस्तान में
जिस्मों की मानिंद
कब्रों पर लिखे नाम भी
वक्त के थपेड़ों से
धीरे -धीरे
सुपुर्द-ए-ख़ाक हो जाते हैं
रह जाती है
कब्रों पर
उगी घास के नीचे
ख़ामोशी की कबा में सोयी
अपने -पराये रिश्तों की
बेज़ुबान पहचान
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on October 3, 2018 at 4:00pm — 10 Comments
शोहरत पर कुछ क्षणिकाएं :
कुछ रिश्ते
रिश्तों का
दिलाने लगे हैं
अहसास
शायद
शोहरत की चमक से
वो
बनने लगे हैं
ख़ास
.... .... .... .... ....
शोहरत की ऊंचाई से
लगते हैं
सभी बौने
यश की धूप
सांझ से डरती है
जाने
कब उतर जाये
यश के जिस्म से
अहं का मुलम्मा
और रह जाएँ
हाथों में
यथार्थ के
खाली दोने
.... .... .... .... .... ....
दर्पण
अंधे हो जाते हैं
अंधेरों में
यथार्थ…
Added by Sushil Sarna on September 28, 2018 at 5:00pm — 11 Comments
झूठी चाय ... (लघु रचना )
देख रही थी
सुसंस्कृत सभ्यता
सूखे स्तनों से
अधनंगी संतान को
दूध के लिए
छटपटाते
पिला दी
कागज़ के झूठे कपों में
बची चाय
कर दी क्षुधा शांत
अपने बच्चे की
सुसंस्कृत आवरण में
उबलती
सभ्य झूठ की
मृत संवेदना में लिपटी
पैंदे में बची
झूठी
चाय से
सुशील सरना /२७. ०९,२०१८
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on September 27, 2018 at 4:36pm — 2 Comments
हैंगर में टंगे सपने ....
तीर की तरह चुभ जाता है
ये
मध्यम वर्ग का शब्द
और
किसी की हैसियत को
चीर- चीर जाता है
किसी जमाने में
मध्यम वर्ग के लिए
पहली तारीख
किसी पर्व से कम न थी
पहली तारीख तो आज भी है
मगर
उसके साथ खुशियां कम
और चिन्ताएँ अधिक हैं
पहली तारीख
दिल चाहता है
आज का सूरज सो जाए
रात कुछ लम्बी हो जाए
पानी,बिजली, टेलीफोन,मोबाईल के
भुगतानों की…
Added by Sushil Sarna on September 26, 2018 at 7:00pm — 12 Comments
कुछ क्षणिकाएं :
पिघलती नहीं
अब
अंतर्मन की व्याकुलता
आँखों से
स्वार्थ का चश्मा
सोख लेता है
सारा दर्द
................
सीख लिया है
आँखों ने
खारा पानी पीना
संवेदनहीन
हो गया है
वर्तमान
.........................
झीलें नहीं होती
भावों की
आँखों में
मैच कर लेता है
हर अंतरंग का रंग
कांटेक्ट लेंस
.....................
मुद्दत हो गई
खुद से मुलाकात हुए
शायद…
Added by Sushil Sarna on September 21, 2018 at 2:36pm — 19 Comments
पति ब्रांड ...
बिखरे बाल
हाथ में झोला
कई जगह से
पैबंद लगा
कुर्ते का चोला
न जाने ऊपर वाले को
क्या सूझा कि
पत्नी के अखाड़े में
पति को पेल दिया
अच्छे…
Added by Sushil Sarna on September 18, 2018 at 1:00pm — 10 Comments
परिणाम....
मेरी पलक का स्वप्न
तुमसे नेह का
परिणाम था
मेरी कमीज पर
लगा दाग
तृषा और तृप्ति की
जंग का
परिणाम था
मेरे अधरों पर
छूटा हुआ
असहाय सा स्पर्श
हिय कंदराओं में पलते
भावों का
परिणाम था
ओस की बूँद में
परिलिक्षित होता
सुंदरता का सागर
तुमसे असीम स्नेह का
परिणाम था
क्यूँ तुमने ऐसा किया
अपनी रातों में
मेरी रातों को समाहित कर
मुझसे…
Added by Sushil Sarna on September 14, 2018 at 8:33pm — 4 Comments
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