विरासत ...
तुम
देर तक
ठहरे रहे
मेरे संग
बरसात में भीगते हुए
जो सोचा था
वो कह न सकी
जो कहा
वो सोचा न था
लबों की जुम्बिश से
यूँ लगता था जैसे
तुमने भी
मुझसे मिलकर
कुछ कहना था शायद
जो कह न सके
मेरी तरह
देर तक
तुम्हारी नज़रों के
लम्स
ख़ामोश अहसासात का
तर्ज़ुमा करते रहे
बरसात होती रही
अलफ़ाज़
इश्क की इबारत गढ़ते रहे
अपनी अपनी खामोशी में
हम…
ContinueAdded by Sushil Sarna on December 24, 2018 at 7:51pm — 4 Comments
बे-हया निशानी .....
हिज़्र की रातों में
तन्हा बरसातों में
खामोश बातों में
अश्कों की सौगातों में
मेरे नफ़्स में
साँसों के क़फ़स में
चांदनी बन कसमसाती
धड़कनों से बतियाती
सच, ओर कोई नहीं
सिर्फ, तुम ही तुम हो
बारिशों के पानी में
प्यासी कहानी में
नादान जवानी में
लहरों की रवानी में
अंगड़ाई की बेचैनी में
लबों की निशानी में
सच, ओर कोई नहीं
सिर्फ, तुम ही तुम…
Added by Sushil Sarna on December 21, 2018 at 5:30pm — 8 Comments
दोहा संकलन :
नैन करें अठखेलियाँ, स्पर्श करें संवाद।
बाहुबंध में हो गए, अंतस के अनुवाद।१ ।
नैन शरों के घाव का ,अधर करें उपचार।
श्वास-श्वास में खो गयी,स्पर्श हुए साकार।२ ।
नैन विरह में प्रीत के ,बरसे सारी रात।
गूँगे स्वर करते रहे, मौन पलों से बात।३ ।
अद्भुत पहले प्यार का, होता है आनंद।
देह-देह में रागिनीं , श्वास -श्वास मकरंद।४ ।
केशों में जूही सजे , महके हरसिंगार।
नैनों की हाला करे,…
Added by Sushil Sarna on December 15, 2018 at 5:12pm — 10 Comments
देर तक ....
तुन्द हवाएँ
करती रही खिलवाड़
हर पात से
हर शाख से
देर तक
रोती रही
बेबस चिड़िया
टूटे अण्डों के पास
देर तक
हो गई शान्त
हवाएँ
प्रकृति से
अपना खिलवाड़ करके
हो गया शान्त
रुदन
चिड़िया का
कुछ न समझ सकी
खेल विधाता का
सृजन से पूर्व संहार
क्या यही है
संसार
बस देखती रही
बिखरे तिनके
टूटे अंडे
स्वप्न के अवशेष
देर तक
सुशील…
ContinueAdded by Sushil Sarna on December 12, 2018 at 7:30pm — 6 Comments
रंगहीन ख़ुतूत ...
तन्हाई
रात की दहलीज़ पर
देर तक रुकी रही
चाँद
दस्तक देता रहा
मन
उलझा रहा
किसका दामन थामूँ
अर्श के माहताब का
पलकों के ख्वाब का
या ज़ह्न के सैलाब का
सवाल
गर्म लावे से
उबलते रहे
जवाब
तन्हाई में
सुबकते रहे
मैं ज़ीना-ज़ीना
ज़ह्न के सन्नाटों में
उतरती रही
अपनी ही साये में
बिखरती रही
बस रहे गए हाथ में
अर्थहीन अलफ़ाज़ के
रंगहीन ख़ुतूत…
Added by Sushil Sarna on December 10, 2018 at 2:00pm — 8 Comments
दो क्षणिकाएं :
पिघल गयी
दे कर आघात
बेदर्दी याद
......................
ढाया कह्र
आफ़ताब ने
ओस की बूँद पर
बिखर गई रेज़ा-रेज़ा
तन्हा-तन्हा
रोया गुलाब
.....................
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on December 7, 2018 at 8:56pm — 10 Comments
ख़्याल ...
मैं सो गयी
इस ख़्याल से
कि तेरा ख्याल भी
साथ मेरे सो जाएगा
मगर
तेरा ख़्याल
तमाम शब्
मेरी नींदों से
खिलवाड़ करता रहा
मैं उनींदी सी सोयी रही
उसके लम्स
मेरे ज़ह्न को
झिंझोड़ते रहे
अंततः
सौंप दिया स्वयं को
ख़्याल बनके
उस ख़्याल के हवाले
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on December 5, 2018 at 6:54pm — 3 Comments
३ क्षणिकाएँ ...
छोटी सी बात
साँय-साँय करती रात
स्मृति पटल को दे गई
अमर
स्पर्श
सौग़ात
........................
व्योम
शून्यता के पर्याय के अतिरिक्त
आश्रय स्थल भी है
उन स्मृतियों का
जो जीती हैं
मिट कर भी
अंत से अनंत तक
.....................................
भला घर
खंडहर में
तब्दील कब होते हैं
जब तक
Added by Sushil Sarna on December 3, 2018 at 7:00pm — 8 Comments
कुछ क्षणिकाएं जीवन पर :
लो
आज मैं बड़ा हो गया
अपनी नेम प्लेट
लगाकर
बूढ़ी नेमप्लेट
हटा कर
.................
ज़िंदगी
हार गयी
ज़िंदगी से
खून से
खून की दरिंदगी से
..............................
असंभव को
संभव कर दिया
ज़िंदगी को
मरघट की
राह बता कर
............................
वृद्धाश्रम में
माँ -बाप को छोड़
बड़ा उपकार किया
संतान ने
दूध का क़र्ज़
उतार…
Added by Sushil Sarna on November 29, 2018 at 3:04pm — 10 Comments
चुनौती दे डाली ....
खिड़कियों के पर्दों ने
रोशनी के प्रभुत्व को
चुनौती दे डाली
जुगनुओं की चमक ने
अंधेरों के प्रभुत्व को
चुनौती दे डाली
अंतस की पीड़ा ने
आँखों के सैलाबों को
चुनौती दे डाली,........
विरह के अभयारण्य ने
स्मृतियों के भंडारण को
चुनौती दे डाली
बिस्तर की सलवटों ने
क्षणों की चाल को
चुनौती दे डाली
जीत के आसमान को
हार की ज़मीन ने
चुनौती दे…
Added by Sushil Sarna on November 27, 2018 at 7:28pm — 6 Comments
नया विकल्प ...
हंसी आती है
जब देखता हूँ
रात को दिन कहने वाले लोग
जुगनुओं की तलाश में
भटकते हैं
हंसी आती है
जब लोग नेता और अभिनेता की तासीर को
अलग-अलग मानते हैं
उनकी जीत के बाद
स्वयं हार जाते हैं
हंसी आती है
उन लोगों पर
जो मात्र हाथों में
किसी पार्टी का परचम उठाकर
स्वयं का अस्तित्व भूल जाते हैं
भूल जाते हैं कि वो
मात्र शोर का माध्यम हैं,
और कुछ नहीं
हंसी आती है…
ContinueAdded by Sushil Sarna on November 26, 2018 at 6:45pm — 3 Comments
अहसासों के टोस्ट: ३ क्षणिकाएं
मर्म
सपनों का
बिना
काया का
साया
न अपना
न पराया
.................
कितने लम्बे
सपनों के धागे
सोच के पाँव
आसमाँ से आगे
नैन जागें
तो ये टूटें
नैन सोएं
तो ये जागें
......................
सर्द सवेरा
चाय की प्याली
उठती भाप
अहसासों के टोस्ट
नज़रों की चुस्कियाँ
उम्र के ठहराव पर
काँपते हाथों सी
ठिठुरती…
Added by Sushil Sarna on November 19, 2018 at 2:30pm — 6 Comments
इस दर्पण में ......
नहीं
मैं नहीं देखना चाहता
स्वयं का ये रूप
इस दर्पण में
नहीं देखना चाहता
स्वयं को इतना बड़ा होता
इस दर्पण में
मैं
सिर्फ और सिर्फ
देखना चाहता हूँ
अपना स्वच्छंद बचपन
इस दर्पण में
गूंजती हैं
मेरे कानों में
आज तक
माँ की लोरियाँ
ज़रा सी चोट पर
उसकी आँखों में
अश्रुधार
मेरी भूख पर
उसके दूध में लिपटा
उसका
स्निग्ध दुलार
कहाँ…
Added by Sushil Sarna on November 15, 2018 at 6:40pm — 4 Comments
3 क्षणिकाएँ....
लीन हैं
तुम में
मेरी कुछ
स्वप्निल प्रतिमाएँ
देखो
खण्डित न हो जाएँ
ये
पलकों की
हलचल से
...................
Added by Sushil Sarna on November 14, 2018 at 1:00pm — 11 Comments
कसमों की डोरी ....
चलो
कोशिश करते हैं
जीवन को
कसमों की डोरी में
रस्मों की गंध से
अलंकृत कर दें
चलो
कोशिश करते हैं
हिना के रंग को
स्नेह अभिव्यक्ति के
अनमोल पलों से
अमर कर दें
चलो
कोशिश करते हैं
अपरिचिति श्वासों को
हवन कुंड की अग्नि के समक्ष
एक दूजे में समाहित कर
सृष्टि की पावनता को
श्रृंगारित कर दें
चलो
कोशिश करते हैं
लकीरों में छुपे
अपने…
Added by Sushil Sarna on October 29, 2018 at 7:44pm — 10 Comments
शान्ति :
बहुत आज़मा लिया
शान्ति के लिए
युद्ध को
एक बार तो
प्यार को भी
आज़माया होता
शान्ति के लिए
...............................
होड़ ...
बारूद के धुऐं में
झुलस गई
ज़िंदगी
सो गए
सीमाओं पर
गोलियों के बिछौने पर
खामोशियों का
कफ़न ओढ़े
पथराये से
खामोश रिश्ते
जाने क्या पाने की होड़ में
सीमा पर
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on October 29, 2018 at 4:34pm — 12 Comments
ज़िंदगी ....
तुम आईं
तो संवरने लगी
ज़िंदगी
साथ जीने
और मरने के
अर्थ
बदलने लगी
ज़िंदगी
मौसम बदला
श्वासें बदलीं
अभिव्यक्ति की साँझ में
बिखरने लगी
ज़िंदगी
प्रतीक्षा
मौन हुई
शब्द शून्य हुए
चुपके-चुपके
स्मृति के परिधान में
सिमटने लगी
ज़िंदगी
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on October 27, 2018 at 4:00pm — 8 Comments
मानव छंद में प्रयास :
मेरे मन को जान गयी ।
फिर भी वो अनजान भयी।।
शीत रैन में पवन चले।
प्रेम अगन में बदन जले।।
..................................
देह श्वास की दासी है।
अंतर्घट तक प्यासी है।।
मौत एक सच्चाई है।
जीवन तो अनुयायी है ।।
................................
रैना तुम सँग बीत गई।
मैं समझी मैं जीत गई।।
अब अधरों की बारी है।
तृप्ति तृषा से हारी है।।
सुशील सरना
मौलिक एवं…
Added by Sushil Sarna on October 23, 2018 at 8:30pm — 6 Comments
नए आयाम ....
मुझे
नहीं सुननी
कोई आवाज़
मैंने अपने अन्तस् से
हर आवाज़ के साथ जुड़े हुए
अपनेपन की अनुभूति को
तम की काली कोठरी में
दफ़्न कर दिया है
अपनेपन का बोध
कब का मिटा दिया है
अपनेपन की सारी निधियाँ
लुटा चुका हूँ
अब तो मैं
किसी स्मृति का अवशेष हूँ
आवाज़ों के मोह बंधन में
मुझे मत बाँधो
हम दोनों के मन
एक दूसरे की अनुभूतियों के
अव्यक्त स्वरों से
गुंजित हैं
आवाज़ों को चिल्लाने दो…
Added by Sushil Sarna on October 22, 2018 at 7:42pm — 6 Comments
रावण :
एक रावण
जला दिया
राम ने
एक रावण
ज़िंदा रहा
मन में
किसी
राम के इंतज़ार में
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on October 19, 2018 at 9:24pm — 1 Comment
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