साँझ होते ही
सो जाता हूँ
अतीत की चादर
ओढ़ कर,
बेसुध
न जाने कब
चादर विरल होने लगती है
इतनी विरल कि
चादर तब्दील हो जाती है
एक खूबसूरत बाग़ में
जिसमे तुम मुस्कुराती हो
फूल बन कर
और मै मंडराता हूँ
भँवरे सा
तुम इठलाती,
इतराती रात भर,
तो कभी ऐसा भी हुआ
जब मै बृक्ष बन उग आता हूँ
और तुम, बेल बन लिपट जाती हो
मै हँसता हूँ तुम मुस्कुराती हो
फिर तुम चाँद बन जाती हो
और मै - चकोर
और मै लगाने लगता हूँ टेर
पिऊ , पिऊ की
और तभी, सारा जादुई आलम
फिर से सघन होकर
तब्दील हो जाता है चादर में
जिसे फिर से सहेज
रख देता हूँ सिरहाने
रात फिर ओढ़ सो जाने को
मुकेश इलाहाबादी --------
(मौलिक/अप्रकाशित)
Comment
क्या बात है ! आदरणीय बढ़िया कविता के लिये बधाई ।
बहुत खूब भाई मुकेश इलाहाबादी जी।
jee saraahnaa aur sujhaaw ke liye aabhaar - muktibodh jee ko padhnaa apne aapme ek pyaraa aur achhaa anubhav hotaa hai - Dr.Gopal Narayan Srivastava jee
मुकेश जी
आपकी रचना एक फैंटेसी की तरह है i हिन्दी मे फैंटेसी कम है i आप मुक्ति बोध की कविता 'अँधेरे में ' पढ़िए i आप फैटे सी को गहनता से समझेंगे और बेह्त र लिखेंगे i मुझे विशवास है i सादर i
rachnaa pasandgee ke liye bahut bahut aabhaar Rajesh Kumari jee, Laxman jee, Hari Prakash Dubey jee, Somesh kumar jee
एहसासों की ,भावनाओं की चादर ....बहुत खूब ..बधाई आपको आ० मुकेश श्रीवास्तव जी
अति सुंदर हार्दिक बधाई ।
अतीत की चादर सुन्दर लगती है ,सुन्दर रचना ,हार्दिक बधाई मुकेश जी !
सुंदर प्रस्तुति ,प्रेम का गोता ही ऐसा है जहाँ हर तरह उसे देखने की चाह बनी रहती है ,और समर्पण उसके अनुसार प्रेमी को भी ने रूपों मे ढालता है |
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