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221—2121—1221—212

 

कविता में सम्प्रदाय लिखा-सा मिला जहाँ

शब्दों के साथ जल गई सम्पूर्ण बस्तियाँ

 

धीरे से छंट रहा था कुहासा अनिष्ट का

कुछ शिष्टजन ही लेके चले आये बदलियाँ

 

शासक, प्रशासकों से ये संचार-तंत्र तक

घूमे असत्य भी अ-पराजित कहाँ कहाँ

 

ये फलविहीन वृक्ष लगाने से क्या मिला ?

दशकों से गिड़गिड़ाती, ये कहती हैं नीतियाँ

 

अँकुए में सिर उठाने का दृढ़ प्रण है बीज का

आती हैं तीव्र वेग से, तो आये आंधियाँ

 

मैं फैलता रहा हूँ निरर्थक चतुर्दिशा

षड्यंत्र तम का देखिए सबसे प्रबल यहाँ 

 

उर्वर धरा से छीन के पोषण के तत्व वो

क्यों देखते हैं स्वप्न में गेंहूँ की बालियाँ

 

अब पल्लवन की राह से परिचित कहाँ रही 

ये पत्रहीन हो चुकी बेडौल टहनियाँ

 

इस दृश्य के भी पाश्व कई दृश्य है छुपे

मष्तिष्क है तो खोल तनिक सच की रश्मियाँ

 

घटना पढ़ी अवश्य समाचार-पत्र में

‘मिथिलेश’ कह सके न कभी, क्या हुआ वहाँ

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by rajesh kumari on February 13, 2017 at 12:29pm

वाह्ह्ह वाह्ह्ह्हह मिथिलेश भैया हिंदी शब्द की बाहुल्यता किये गैर मुरद्दफ़ ये ग़ज़ल/गीतिका भी बहुत खूब रही हर शेर पर दाद प्रेषित है बहुत बहुत बधाई  

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 12, 2017 at 9:30am
वाह आदरणीय बेहतरीन समसामयिक चित्रण करती हुई ग़ज़ल..मेरे लिए ये सबसे कठिन मापनी है..सोचता हूँ कभी लिख सकूँगा इसपे..सादर
Comment by जयनित कुमार मेहता on February 9, 2017 at 9:37pm
आदरणीय मिथिलेश जी, हिन्दी के तत्सम शब्दावलियों से इस बह्र में ये क़माल आप ही कर सकते हैं। लाजवाब ग़ज़ल हेतु हृदयतल से अशेष बधाइयाँ आपको।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 9, 2017 at 8:25pm

आ० मिथिलेश जी , वाह क्या मुरस्सा गजल कही आपने

घटना पढ़ी अवश्य समाचार-पत्र में

‘मिथिलेश’ कह सके न कभी, क्या हुआ वहाँ      / (एक कोशिश मेरी भी ) पर कह न पाया मैं  कभी था क्या छपा वहां

Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on February 9, 2017 at 7:27pm
आदरणीय मिथीलेशजी शानदार ग़ज़ल की बधाई स्वीकार करें।
Comment by Mohammed Arif on February 9, 2017 at 6:02pm
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी आदाब,शानदार ग़ज़ल लिखी है आपने । बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 9, 2017 at 5:15pm

आदरणीय मिथिलेश जी ..जीवन में आजकल जो हो रहा है हर पहलू को शानदार तरीके से शेरो के माध्यम से ग़ज़ल में पिरोया है आपने ..हिंदी की इस शानदार ग़ज़ल पर आपको ढेर सारी बधाई सादर 

Comment by Samar kabeer on February 8, 2017 at 10:51pm

जनाब मिथिलेश वामनकर जी आदाब,बहुत ही उम्दा और मुरस्सा ग़ज़ल से नवाज़ा है आपने मंच को ,इस पर आपकी मिहनत साफ़ दिखाई दे रही है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
सातवे शैर के ऊला मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर देखिये :- 'तत्व वो' ।

कुछ मिसरों में टंकण त्रुटियों को दुरुस्त कर लीजिये,शैर का मज़ा ख़राब हो रहा है ।

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 8, 2017 at 10:46pm
आदरणीय मिथिलेश सर सादर प्रणाम, बहुत बढ़िया ग़ज़ल के लिए बधाइयाँ, घाव गंभीरता से की गई है, बात दमदारी से कही गयी है
Comment by दिनेश कुमार on February 8, 2017 at 7:35pm
आ मिथिलेश भाई.. ऐसी ग़ज़ल कहने के लिये दिल से मुबारकबाद।
शानदार। हर शेर बहुत अच्छा हुआ है। वाह

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