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ग़ज़ल-नूर की - जैसी उस ने सौंपी थी वैसी मिले,

२१२२/२१२२/२१२ 
.
जैसी उस ने सौंपी थी वैसी मिले,
ये न हो चादर उसे मैली मिले.
.
इस सफ़र में रात जब गहरी मिले
शम’अ कोई या ख़ुदा जलती मिले.
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याद रखने के लिये दुनिया रही
भूल जाने के लिये हम ही मिले. 
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ये बग़ावत है तो हम बाग़ी सही,
सच कहेंगे, फिर सज़ा इस की मिले.

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हाँ! शुरू में रोज़ मिलते थे.. मगर
बाद में कुछ यूँ हुआ कम ही मिले.
.
सर कलम करने पे आमादा है वो
चाहते हम भी हैं अब छुट्टी मिले.
.
डाल देना बीज कुछ फूलों के तुम
जब भी मिट्टी में मेरी मिट्टी मिले.  
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 5, 2017 at 12:32am

शुक्रिया आ. तस्दीक़ साहब 

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on April 4, 2017 at 10:20pm

मुहतरम जनाब नीलेश . साहिब , अच्छी ग़ज़ल हुई है ,दाद के साथ शेर दर शेर मुबारकबाद
क़ुबूल फरमाएँ -----

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 2, 2017 at 10:18pm

शुक्रिया आ. महेंद्र जी

Comment by Mahendra Kumar on April 2, 2017 at 10:16pm
वाह! वाह!! वाह!!! क्या कमाल की ग़ज़ल कही है आपने आदरणीय नीलेश जी। पढ़कर मज़ा आ गया। दिल से ढेर सारी बधाई क़ुबूल कीजिए। सादर।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 1, 2017 at 8:35pm

शुक्रिया आ. अनुराग जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 1, 2017 at 8:35pm

शुक्रिया आ. सतविंदर कुमार जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 1, 2017 at 8:35pm

शुक्रिया आ. दिनेश भाई 

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on April 1, 2017 at 5:30pm
आदरणीय नीलेश जी,कमाल गजल हुई है!हार्दिक बधाई!
Comment by दिनेश कुमार on April 1, 2017 at 3:13pm
जैसी उस ने सौंपी थी वैसी मिले,
ये न हो चादर उसे मैली मिले... वाह वाह वाह

हर शेर उम्दा हुआ है आ. निलेश सर। क्या कहने हैं। बहुत ख़ूब। दाद ही दाद।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 1, 2017 at 9:04am

शुक्रिया आ. समर सर,
आप से दाद पाकर लिखना सार्थक हुआ 

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