२१२२/२१२२/२१२
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जैसी उस ने सौंपी थी वैसी मिले,
ये न हो चादर उसे मैली मिले.
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इस सफ़र में रात जब गहरी मिले
शम’अ कोई या ख़ुदा जलती मिले.
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याद रखने के लिये दुनिया रही
भूल जाने के लिये हम ही मिले.
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ये बग़ावत है तो हम बाग़ी सही,
सच कहेंगे, फिर सज़ा इस की मिले.
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हाँ! शुरू में रोज़ मिलते थे.. मगर
बाद में कुछ यूँ हुआ कम ही मिले.
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सर कलम करने पे आमादा है वो
चाहते हम भी हैं अब छुट्टी मिले.
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डाल देना बीज कुछ फूलों के तुम
जब भी मिट्टी में मेरी मिट्टी मिले.
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निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. तस्दीक़ साहब
मुहतरम जनाब नीलेश . साहिब , अच्छी ग़ज़ल हुई है ,दाद के साथ शेर दर शेर मुबारकबाद
क़ुबूल फरमाएँ -----
शुक्रिया आ. महेंद्र जी
शुक्रिया आ. अनुराग जी
शुक्रिया आ. सतविंदर कुमार जी
शुक्रिया आ. दिनेश भाई
शुक्रिया आ. समर सर,
आप से दाद पाकर लिखना सार्थक हुआ
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