जैसे ही मैंने दरवाजा खोला
भारत माँ व्यथित खड़ी थी
बेगैरत जुलूस निकल रहे थे
संस्कृति जमीन में गडी थी
झूठ के महल दमक रहे थे
सच्चाई झोंपड़ी में पड़ी थी
अमीरी के झरने बह रहे थे
गरीबी तुच्छ पंक में सड़ी थी
भ्रष्टाचारी अट्टाहस कर रहे थे
नेक नयन में अश्रु की झड़ी थी
वृक्ष और पर्वत कट रहे थे
पर्यावरण में खूब हड़बड़ी थी
तपिश से हिम नद पिघल रहे थे
सुनामी तबाही पे अड़ी थी
देखकर स्नायु तंत्रिकाओं ने द्वन्द किया
Comment
राजेश जी
सादर,
क्षण भर को गरल अखंड पिया
और मैंने दरवाजा बंद किया |
हकीकत को बयान कराती सुन्दर रचना, आपने दरवाजा बंद किया ये तो ठीक है किन्तु उनको क्या कहें जिन्हें यूँ दरवाजे बंद होने से रोकने का कार्य सौंपा है? बधाई.
प्रिय महिमा श्री बहुत बहुत हार्दिक आभारी हूँ मेरी कविता के मर्म तक पहुँचने के लिए
आदरणीया राजेश दी , नमस्कार आपकी इस रचना ने मुझे चकित भी किया और भीतर जाकर कही अटक सा गया .. वाकई में ऐसा ही तो सभी कर रहे है ... सच्चाई से रूबरू कराती रचना के लिए बधाई आपको
योगी सारस्वत जी बहुत बहुत आभार
क्षण भर को गरल अखंड पिया
और मैंने दरवाजा बंद किया |
कभी कभी ऐसे हालातों में यही करना मुनासिब होता है ! बेहतरीन रचना , आदरणीय राजेश कुमारी जी !
बहुत बहुत आभार संदीप कुमार जी
ऐसे मैं द्वार बंद कर देना ही अच्छा रहा आपका
बहुत खूबसूरती से लिखा आपने
बधाई आपको इस रचना के लिए
हार्दिक आभार योगराज जी बहुत ख़ुशी होती है अपने उद्देश्य को सार्थक पाकर मेरी लेखनी को बल मिला
हार्दिक आभार सौरभ पाण्डेय जी यही तो हो रहा है आजकल सच्चाई से मुंह मोड़कर बैठने का वक़्त नहीं है वक़्त है हालात को सुधारने का
कविता अपना सन्देश देने में सफल रही है, अत: मेरी दिली बधाई स्वीकार करें राजेश कुमारी जी.
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