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उदास लडकियां
नहीं कहतीं किसी से-
 अपनी उदासी का सबब
करतीं इसरार नहीं
अम्मा से, भैय्या से
होती न बतकही
छुटकी गौरैय्या से
तितलिओं के पीछे भी
 भागतीं नहीं जब तब
निर्दय, नृशंस
समय की दस्तक!
उदास लडकियां
नहीं कहतीं किसी से-
 अपनी उदासी का सबब
टोली बच्चों की
 जो गलियों में
करती है शोर;
कडक्को, पकडम पकडाई
खो- खो,
पतंगों की
कटती हुई डोर;
पी लेतीं आँखें
मासूम बदहवासी को
उदास लडकियाँ
जताती नहीं
अपनी उदासी को
बदल देती है
सब कुछ -
भरती हुई देह
बढ़ती पाबंदियां
ढलता हुआ नेह
चुभतीं लम्पट नजरें
मुंह चिढाते आईने 
बदल जाते हैं
स्नेहिल स्पर्शों
के मायने
कुंहासी संझा की
परछाईयों में
उलझ- उलझ
उदास लडकियां
नहीं कहतीं किसी से-
 अपनी उदासी का सबब
क्योंकि वे बच्चियां नहीं
कुछ और हैं अब!








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Comment

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Comment by राजेश 'मृदु' on January 24, 2013 at 3:03pm

बहुत दमदार रचना है, कहीं कोई बिखराव नहीं, भावनाओं का भटकाव नहीं, जीवन के एक युग की ऐसी भी एक कहानी होती है, यह एक सच्‍चाई है जिसे आपने बहुत ही सफाई से उकेरा है, किस पंक्ति की तारीफ करूं और किसको छोड़ूं यह समझ नहीं पाता हूं, आंखों के सामने एक उदास लड़की का चेहरा बरबस आ जाता है, बहुत बधाई इस रचना पर

Comment by Yogi Saraswat on January 24, 2013 at 2:57pm

उदास लडकियां
नहीं कहतीं किसी से-
 अपनी उदासी का सबब
टोली बच्चों की
 जो गलियों में
करती है शोर;
कडक्को, पकडम पकडाई
खो- खो,
पतंगों की
कटती हुई डोर;
पी लेतीं आँखें
मासूम बदहवासी को
उदास लडकियाँ
जताती नहीं
अपनी उदासी को
बदल देती है
सब कुछ -
भरती हुई देह
बढ़ती पाबंदियां
ढलता हुआ नेह
चुभतीं लम्पट नजरें
मुंह चिढाते आईने 
बदल जाते हैं
स्नेहिल स्पर्शों
के मायने

बहुत खूब ! सुन्दर शब्द ! क्या बात है ! स्वागत है ! एक एक पंक्ति लाजवाब , आदरणीय विनिट्स शुक्ल जी

Comment by Vinita Shukla on January 24, 2013 at 9:49am

रचना के मर्म को ग्रहण कर, सकारात्मक प्रतिक्रिया देने एवं सराहना हेतु, आपका हार्दिक धन्यवाद राजेश कुमारी जी.

Comment by Vinita Shukla on January 24, 2013 at 9:47am

रचना को समय देने तथा इतना सुन्दर विश्लेष्ण करने हेतु हार्दिक आभार आदरणीय सौरभ जी.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 24, 2013 at 8:59am

विनीता जी शब्द- शब्द बहुत कुछ कह गई आपकी रचना सच में युवावस्था में प्रवेश करते ही बचपन छीन लिया  जाता है अन्दर की चंचलता देखते ही देखते गायब हो जाती है दोषी कौन ?ये आज का समाज ! बहुत बधाई आपको इस प्रस्तुति हेतु 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 23, 2013 at 10:34pm

विनीताजी, आपकी रचना कसमसाती है, कसमसाहट में मुट्ठियाँ भींचती है, खुद पर ही तमाचे जड़ती है. और पाठक बेबस निहारता है. क्योंकि वह भी इसी समाज का हिस्सा है जिस समाज में लड़कियाँ उदास हुआ करती हैं.

आपकी इस संवेदनशील रचना ने एकदम से ध्यान खींचा है. इस कविता की पंक्तियों में शब्द नहीं वयस विशेष से उपजी छटपटाहट और निरीहता है.

उदास लडकियां
नहीं कहतीं किसी से-
अपनी उदासी का सबब
क्योंकि वे बच्चियां नहीं
कुछ और हैं अब!.. .

इन पंक्तियों पर न हामी भरते बन रहा है न इनका प्रतिकार करते.

हार्दिक धन्यवाद, इस रचना केलिए.

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