For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

सूरजमुखी के पास जा / ग़ज़ल (मिथिलेश वामनकर)

   2212   -    2212

हो  वार  अब  के  दूसरा

बेजार दिल दामन बचा

मेरे  मुकाबिल  तू  खड़ा

कितना मगर तू लापता 

लेकिन  बता  मैं  हूँ कहाँ

चारो  तरफ  मैं  चल रहा

 

ये लब  लरजते   कांपते

इनको मिली अबके सदा

 

जब  जब  यहाँ  दंगें  हुए

तब  तब  हुई कड़वी हवा

 

सूरजमुखी  से  बात कर

सूरजमुखी  के  पास  जा

 

प्यासा  समंदर  मौज से

अक्सर  कहे  जा रेत ला

 

इस  झील  की परवाज़ है

आगोश  में   अर्ज़ो-समा

 

दिल का दिया 'मिथिलेश' क्यूँ
मज़बूर सा जलता रहा

-------------------------------

 (मौलिक व अप्रकाशित)

 © मिथिलेश वामनकर 

-------------------------------

बह्र--ए-रजज़ मुरब्बा सालिम

अर्कान – मुस्तफ्यलुन / मुस्तफ्यलुन

वज़्न –   2212   / 2212  

Views: 927

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 22, 2014 at 3:55pm

गुनी जनों ने इतना कुछ का दिया i मुझे गजल पसंद आयी  i  सादर i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 22, 2014 at 3:10pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , बेहतरीन  ग़ज़ल हुई है , काफिये पर चर्चा पढ के और खुशी हुई । आपको दिली बधाइयाँ ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 22, 2014 at 11:40am

वाह-वाह-वाह ! ... :-))

आदरणीय मिथिलेशजी,
मैं जहाँ आपको देखता हुआ रुका था, देख रहा हूँ बातें आगे बढ़ गयी हैं. और क्या खूब बढ़ी है. आदरणीया राजेश कुमारीजी ने सधे ढंग से सारी बातों का खुलासा किया है. मैं आदरणीया का हृदय से आभारी हूँ. यही ’सीखने-सिखाने’ की अन्यतम कोशिश है.

किसी सामान्य ग़ज़ल में मतला, वो शेर, जिससे काफ़िया और रदीफ़ निर्धारित होते हैं, के बाद ऐसे और शेर हुस्ने मतला कहलाते हैं. इन हुस्ने मतलाओं के भी दोनों मिसरे मतले की तरह काफ़िया और रदीफ़ का निर्वहन करते हैं. इनकी संख्या कई हो सकती है. आपको सुन कर आश्चर्य होगा कि कई एक ग़ज़लकार ने पूरी ग़ज़ल ही मतलों की कह डाली है. वैसे ऐसी कोशिश कोई आवश्यक कोशिश नहीं है.
मतला तथा हुस्ने मतलाओं के बाद उस ग़ज़ल में ऐसा कोई शेर नहीं होता जिसके उला मिसरा का आखिरी शब्द या शब्द-समुच्चय काफ़िये-रदीफ़ की तरह होता है. अन्यथा तकाबुले रदीफ़ का दोष माना जाता है. इसी कारण मैंने आपके मक्ते में तकाबुले रदीफ़ का दोष है, ऐसा कहा था.  

भाईजी, मैंने जैसी टिप्पणी की थी वैसी टिप्पणियाँ मैं अक्सर नहीं दिया करता. रचनाकारों पर अनावश्यक बोझ बढ़ाना उचित नहीं है. लेकिन मैं ही नहीं, इस मंच के लगभग सभी सक्रिय सदस्यों को आपके गहन प्रयासों और सीखने की ललक को देख कर सुखद अहसास हो रहा है. इसीकारण, मैं आपसे प्रश्न कर आपकी जिज्ञासा को और अधिक बढ़ा देना चाहता था.  
आप ऐसे ही अभ्यास करते रहें, भाईजी. हम सभी ऐसी ही ललक लिये इस मंच पर आये थे.

आपसे या सीखने की आप जैसी ललक वाले रचनाकारों से मैं एक सुझाव साझा करना चाहता हूँ. इस मंच पर ग़ज़ल पर बहुत काम हुआ है. आप उन पाठों को पहले गहराई से पढ़ जायें. मंच के दो गज़ल-गुरुओं आदरणीय तिलकराज कपूरजी और भाई वीनस केसरी ने खूब तफ़्सील से पाठों को लिखा है. आपको ग़ज़ल की विधाओं सम्बन्धित बेशकीमती जानकारियाँ मिलेंगीं.
शुभेच्छाएँ.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 22, 2014 at 10:39am

आदरणीया राजेश कुमारी जी, आपका अनुमोदन और सुझाव पाकर अभिभूत हूँ आपका हार्दिक आभार | आपने पूरी स्थिति स्पष्ट कर दी| आदरणीय सौरभ सर प्रश्न वाला अशआर "अब ये कहें मिथिलेशजी....मैंने भला ये क्यों किया ? "छोड़कर चले गए और मेरी हालत ' ऐसे तड़पू कि जैसे जल बिन मछली" ....आपके निर्देशानुसार ग़ज़ल इस तरह संशोधित कर रहा हूँ -

हो  वार  अब  के  दूसरा

बेजार दिल दामन बचा

मेरे  मुकाबिल  तू  खड़ा

कितना मगर तू लापता 

लेकिन  बता  मैं  हूँ कहाँ

चारो  तरफ  मैं  चल रहा

 

ये लब  लरजते   कांपते

इनको मिली अबके सदा

 

जब  जब  यहाँ  दंगें  हुए

तब  तब  हुई कड़वी हवा

 

सूरजमुखी  से  बात कर

सूरजमुखी  के  पास  जा

 

प्यासा  समंदर  मौज से

अक्सर  कहे  जा रेत ला

 

इस  झील  की परवाज़ है

आगोश  में   अर्ज़ो-समा

 

दिल का दिया 'मिथिलेश' क्यूँ
मज़बूर सा जलता रहा


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 22, 2014 at 10:07am

मतला बहुत सुन्दर है. हुस्ने मतला उससे भी सुन्दर.
तीसरे मतले को आ० सौरभ जी ने बदल कर शेर कर दिया बहुत ठीक किया, और मिसरे भी एक्सचेंज कर दिए सही किया

लेकिन बता मैं हूँ कहाँ--- स्वरांत आँ काफिये के समान्त की तरह नहीं है. काफिये का स्वरांत आ है, नकि आँ. इसी लिए आ० सौरभ जी ने इसको उला में रख दिया , अब आपने जो मक्ता सोचा है, सही सोचा है |

इस  झील  के परवाज़ है----झील की होगा ...परवाज =उड़ान

प्यासा  समंदर  मौज से
अक्सर  कहे  जा रेत ला------बहुत ही सुन्दर शेर

बहुत अच्छी ग़ज़ल ...दाद कबूलिये.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 21, 2014 at 7:04pm
आदरणीय सौरभ सर

दिल का दिया 'मिथिलेश' क्यूँ
मज़बूर सा जलता रहा

चारों तरफ मैं चल रहा
मैं हूँ कहाँ लेकिन बता
चारो तरफ मैं चल रहा

सादर। बहुत बारीक़ नज़र है सर आपकी। नमन आपको।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 21, 2014 at 6:47pm
आदरणीय सौरभ सर इस ग़ज़ल में काफ़िया निर्धारण पर कंफ्यूज हो रहा हूँ। निवेदन मार्गदर्शन प्रदान करने की कृपा करें।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 21, 2014 at 6:25pm
दिमाग नहीं चल रहा सर आप बता दीजिये। आदरणीय सौरभ सर। सादर।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 21, 2014 at 5:47pm

आदरणीय भाई मिथिलेशजी,
आपकी ग़ज़ल अच्छी है. दाद कुबूल करें


परन्तु, पहले तीन शेर के क्रम बदल कर कुछ यों कर दें -
 
हो वार अब के दूसरा
बेजार दिल दामन बचा

मेरे  मुक़ाबिल   तू  खड़ा
कितना मगर तू  लापता

लेकिन बता मैं हूँ कहाँ
चारो तरफ मैं चल रहा .. .......इस शेर में उला को सानी और सानी को उला किया गया है.
 

 

मेरा प्रश्न -
अब ये कहें मिथिलेशजी
मैंने भला ये क्यों किया ? .. .  :-))

और.. मक्ते में भी तकाबुले रदीफ़ का दोष है.
शुभेच्छाएँ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 21, 2014 at 5:35pm
आदरणीय हरि प्रकाश दुबे जी रचना आपको पसंद आई लिखना सार्थक हुआ। आपका हार्दिक धन्यवाद।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"हमको नगर में गाँव खुला याद आ गयामानो स्वयं का भूला पता याद आ गया।१।*तम से घिरे थे लोग दिवस ढल गया…"
8 minutes ago
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"221    2121    1221    212    किस को बताऊँ दोस्त  मैं…"
18 minutes ago
Mahendra Kumar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"सुनते हैं उसको मेरा पता याद आ गया क्या फिर से कोई काम नया याद आ गया जो कुछ भी मेरे साथ हुआ याद ही…"
7 hours ago
Admin posted a discussion

"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)

आदरणीय साथियो,सादर नमन।."ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।प्रस्तुत…See More
7 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"सूरज के बिम्ब को लेकर क्या ही सुलझी हुई गजल प्रस्तुत हुई है, आदरणीय मिथिलेश भाईजी. वाह वाह वाह…"
17 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

कुर्सी जिसे भी सौंप दो बदलेगा कुछ नहीं-लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

जोगी सी अब न शेष हैं जोगी की फितरतेंउसमें रमी हैं आज भी कामी की फितरते।१।*कुर्सी जिसे भी सौंप दो…See More
yesterday
Vikas is now a member of Open Books Online
Tuesday
Sushil Sarna posted blog posts
Monday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा दशम्. . . . . गुरु
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय । विलम्ब के लिए क्षमा "
Monday
सतविन्द्र कुमार राणा commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"जय हो, बेहतरीन ग़ज़ल कहने के लिए सादर बधाई आदरणीय मिथिलेश जी। "
Monday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"ओबीओ के मंच से सम्बद्ध सभी सदस्यों को दीपोत्सव की हार्दिक बधाइयाँ  छंदोत्सव के अंक 172 में…"
Sunday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम, जी ! समय के साथ त्यौहारों के मनाने का तरीका बदलता गया है. प्रस्तुत सरसी…"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service