2122 2122 2122 212
अश्क़ ऊपर जब उठा, उठ कर सितारा हो गया
जा मिला जब अश्क़ सागर से, वो खारा हो गया
चन्द मुस्कानें तुम्हारी शक़्ल में जो पा लिये
आज दिन भर के लिये अपना ग़ुजारा हो गया
चाहतें जब इक हुईं , तो दुश्मनी भूले सभी
कल पराया जो लगा था, आज प्यारा हो गया
ढूँढ कर तनहाइयाँ हम यादों में मश्गूल थे
रू ब रू आये तो यादों का खसारा हो गया
ख़्वाब में भी देख जो मंज़र, तड़प जाते थे हम
हर गली , हर चौक में अब वो नज़ारा हो गया
आप उस बुझते हुये से कोयले को फूँकिये
एक दिन पायेंगे वो फिर से शरारा हो गया
आँसुओं को रात भर पीते रहे , मदहोश थे
सुब्ह दम नज़रें मिलीं , समझो उतारा हो गया
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मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )
Comment
वाह बहुत खूब कहा है सर
आप उस बुझते हुये से कोयले को फूँकिये
एक दिन पायेंगे वो फिर से शरारा हो गया
कमाल की ग़ज़ल और उसका यह नगीना ....प्रणम्य आदरणीय गिरिराज सर
वाह बहुत खूबसूरत ग़ज़ल का सृजन हुआ आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब...सभी अशआर एक से बढ़कर एक..
आँसुओं को रात भर पीते रहे , मदहोश थे
सुब्ह दम नज़रें मिलीं , समझो उतारा हो गया...क्या कहने...लाजबाब..बधाई आदरणीय.
बेहतरीन गजलों में से एक,ख्याल भी बहुत सुंदर हैं ,ऐसा लग रहा है obo में रोज़ सृजन के नये स्तम्भ बन रहे हैं ,विशेष तौर पे गजलों में इस समय एक से बढ़कर एक गज़ल आ रही हैं |मंच रचने वाले सभी जनों को obo की नई ऊंचाई के लिए बधाई |
बहुत ही शानदार गजल ,,,,,,बधाई स्वीकारें |
मेरी पसंदीदा बह पर उम्दा गजल खूब सारी बधाई आदरणीय सादर
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