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नया बना भवन अपने रूप और बनावट पर मुग्ध हो रहा था | तभी अंदर से ईंट ने आवाज़ दी " क्यों इतने आत्ममुग्ध दिख रहे हो , रूपवान तो हम भी हैं "|
" हुँह , तुम्हारा रूप किसे दिखता है , सब तो मुझे ही देखते हैं ", भवन ने इतराते हुए कहा |
छड़ ने , कंक्रीट ने भी यही बात दुहरायी , भवन ने वैसे ही जवाब दिया |
ईंट बोली गर मैं हट जाऊं ? कंक्रीट बोला मैं पकड़ ढीली कर दूँ ? छड ने कहा मैं टेढ़ी हो लटक जाऊं?
भवन थोड़ा सोच में पड़ गया |
" तुम इसलिए खूबसूरत दिख रहे हो क्योंकि तुममे हमने अपनी खूबसूरती को आत्मसात कर दिया है ", यह सुनकर भवन को उसके अल्पज्ञान का भान हो गया |
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 22, 2015 at 9:11pm

बहुत ही सुंदर सन्देश. बधाई स्वीकारें आदरणीय विनय जी.

Comment by Dr. Vijai Shanker on March 22, 2015 at 8:29pm
किसी भी निर्माण में दृश्य से अदृश्य का स्वरुप सदैव बहुत बड़ा होता है। सुन्दर अभिव्यक्ति, बधाई , आदरणीय विनय जी , सादर।

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 22, 2015 at 8:06pm

आदरणीय विनय जी, लघुकथा सन्देश छोड़ने में सफल है, अच्छी लघुकथा हुई है, बहुत बहुत बधाई.

Comment by somesh kumar on March 22, 2015 at 7:31pm

लघुकथा का  एक गहन संदेश की अपनी सम्पूर्णता को सराहो और केवल बाहरी अवयव पर आत्म-मुग्ध मत होओ,बचपन में पढ़ी बारहसिंग्हे की कथा याद आ गई |बधाई इस प्रस्तुति

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 22, 2015 at 7:01pm

आ० विनय जी

हम इंसानों की आत्ममुग्धता का भी यही हाल है .  सुन्दर . शिक्षाप्रद . सादर .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 22, 2015 at 6:32pm

आत्ममुग्धता पर भवन व् उसके निर्माण की सामग्री का बिम्ब लेकर क्या खूब आईना दिखाया बहुत खूब ...शानदार.

हार्दिक बधाई आपको विनय कुमार जी.  

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