२२२२ २२२२ २२२२
दुनिया ने तो काँटे बोये कैसे कैसे
चुन-चुन कर हम कितना रोये कैसे कैसे
काँटों तक ही दर्द नहीं सीमित था अपना
बातों- बातों तीर चुभोये कैसे कैसे
तुमको देखा तो जाने क्यों आया जाला
मल-मल कर आँखों को धोये कैसे कैसे
एक हथेली दूर जहाँ पर दूजी से हो
हम नाते-रिश्तों को ढोये कैसे कैसे
काले काले मेघों की थी भूलभुलैय्या
उजले-उजले सूरज खोये कैसे कैसे
सिमटी बैठी थी भीतर चन्दन की खुशबू
आजू-बाजू विषधर सोये कैसे कैसे
जिन सपनों को फेंक दिया था घर से बाहर
पलकों ने वापस संजोये कैसे कैसे
पुछल्ला –
सूख चुका है भीतर से जज्बाती सागर
ग़ज़लों के अशआर भिगोये कैसे कैसे
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
दीदी
खूबसूरत गजल कही आपने-
एक हथेली दूर जहाँ पर दूजी से हो
हम नाते-रिश्तों को ढोये कैसे कैसे
सिमटी बैठी थी भीतर चन्दन की खुशबू
आजू-बाजू अजगर सोये कैसे कैसे
खूब सुन्दर गजल केव लिए बधाई
बहुत बहुत शुक्रिया मनोज जी .
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