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दोष आरक्षण के अब तो -(गजल ) - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2122    2122    2122    212
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बारिशों के  हादसे  जब  दामनों  तक आ गए
दुख मेरी तन्हाइयों की बस्तियों तक आ गए /1

याद  मुझको   तो  नहीं  हैं  ठोकरें मैंने भी दी
क्यों ये पत्थर रास्तों के मंजिलों तक आ गए /2

सोचकर निकले थे  बाहर  कुछ  उजाला ढूँढ लें
घर के तम लेकिन हमारे  रास्तों तक आ गए /3

नाव  जर्जर  और  पतवारें   रहीं   सब  अनमनी
क्या बताएं किस तरह हम साहिलों तक आ गए /4

हो रही है माँग हर शू जाति  क्या औ धर्म क्या
दोष आरक्षण के अब तो काबिलों तक आ गए /5

व्यक्तिवादी  सोच  बोलूँ या समाजों की चिता
हाथ मासूमों  के  अब जो बोतलों तक आ गए /6

वो रहे महफूज मिलना  छोड़ लिक्खी चिट्ठियाँ
कातिलों के हाथ लेकिन चिट्ठियों तक आ गए /7
************
(मौलिक और अप्रकाशित )

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Comment by मनोज अहसास on November 3, 2015 at 11:03pm
बेहतरीन कलाम
सादर
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 3, 2015 at 7:21pm
आदरणीय लक्ष्मण जी बेहद ख़ूबरू ग़ज़ल हुई है। संवेदना की नदी बह रही, वेदना की अनुभूति करा रही। यथेष्ट अभिवादन स्वीकारें

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 3, 2015 at 6:52pm

सोचकर निकले थे  बाहर  कुछ  उजाला ढूँढ लें
घर के तम लेकिन हमारे  रास्तों तक आ गए /3

वो रहे महफूज मिलना  छोड़ लिक्खी चिट्ठियाँ
कातिलों के हाथ लेकिन चिट्ठियों तक आ गए /  --- बहुत खूब !! आदरणीय बढ़िअया गज़ल हुई है हार्दिक बधाइयाँ आपको ॥

हर शू   को   हर सू  कर लीजियेगा ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 3, 2015 at 5:10pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद और मुबारकबाद कुबूल फरमाएं."

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