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ग़ज़ल नूर की-रोज़ जो मुझ को नया चाहती है

२१२२/११२२/२२ (११२)

रोज़ जो मुझ को नया चाहती है
ज़िन्दगी मुझ से तू क्या चाहती है?
.
मौत की शक्ल पहन कर शायद
ज़िन्दगी बदली क़बा चाहती है.
.
मशवरे यूँ मुझे देती है अना
जैसे सचमुच में भला चाहती है.
.
इक  सितमगर जो  मसीहा भी न हो,
नई दुनिया वो  ख़ुदा चाहती है.
.
“नूर’ बुझ जाये चिराग़ों की तरह
क्या ही नादान हवा चाहती है. 
.
निलेश"नूर"

मौलिक/ अप्रकाशित 

Views: 1076

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Comment by Samar kabeer on May 2, 2017 at 9:32pm
'इक सितमगर जो मसीहा सा लगे
नई दुनिया वो ख़ुदा चाहती है'
अब ये शैर मुकम्मल हो गया,ऊला मिसरे का 'भी'निकलने से शैर बहुत वुसअत आ गई है,पुनः बधाई ।
Comment by Tasdiq Ahmed Khan on May 2, 2017 at 8:53pm

मुहतरम जनाब नीलेश साहिब ; अच्छी ग़ज़ल हुई है , दाद और मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ
शेर 4 के सानी मिसरे को यूँ भी कर सकते हैं ---'' खल्क़ कब एसा खुदा चाहती है ''
शेर 5के सानी मिसरे से बात साफ़ नहीं हो पाई , क्या की जगह यह का इस्तेमाल
ज़्यादा सही लग रहा है '' यह ही नादान हवा चाहती है ''-------सादर

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 2, 2017 at 8:32pm

शुक्रिया शिज्जू भाई 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 2, 2017 at 8:30pm

या यूँ 
.
इक सितमगर जो मसीहा सा लगे,
नई दुनिया वो ख़ुदा चाहती है.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on May 2, 2017 at 8:21pm
मशवरे यूँ मुझे देती है अना
जैसे सचमुच में भला चाहती है// वाह क्या कहने आ. निलेश.भैया बहुत बहुत बधाई
Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 2, 2017 at 8:06pm

या यूँ देखिये 
.
हो सितमगर जो मसीहा सा लगे,
नई दुनिया वो ख़ुदा चाहती है.

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 2, 2017 at 6:32pm

आ. समर सर..
तरमीम यूँ है ..
.
जो सितमगर हो मसीहा भी न हो,
नई दुनिया वो ख़ुदा चाहती है.... आप अनुमोदित करें तो बदलाव करूँ 
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 2, 2017 at 6:24pm

शुक्रिया आ. समर सर... तरमीम के साथ हाज़िर होता हूँ ...
आभार 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 2, 2017 at 6:24pm

शुक्रिया आ. समर सर... तरमीम के साथ हाज़िर होता हूँ ...
आभार 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 2, 2017 at 6:23pm

शुक्रिया आ. नरेन्द्रसिंह जी 

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