ज़िन्दगी सपेरे की रहस्यमयी पिटारी हो मानो
नागिन-सी सोच की भटकती हुई गलियों में
हर रिश्ते की कमल-पंखुरी मुरझा कर
सूखकर भी झड़ जाने से पहले लिख जाती है
विचार-भाव में कोई लम्बी भीषण कहानी
अद्भुत है सृष्टि हर रिश्ते की
कभी किसी आकाशीय स्नेह से द्रवित
कभी परिवर्तित हृदय-संबंध से आतंकित
तारिकायों के संग नृत्य में प्र्फुल्लित
या कभी शून्य की सियाह सुरंग से उद्विग्न
पल भर में कहाँ से कहाँ घूम आता है मन
बरसाती रातों में हवा की सांयँ-सांयँ
भरमाया, कुछ घबराया मन मेरा
विचार-मग्न मैं बैठा सोच रहा
कौन है, कोई तो है जो बता आता है पतंगों को
मौसम नहीं है आज आने का, तुम न आना
तुम, न आना ...
अब आयु की भीगी संध्याओं में
स्मृतियों के कुहरे में दबा पराजित-सा
ग़मग़ीन है आज, बहुत उदास है मन
छूट रही है धमनीयों में भी शायद
रफ़तार की खून से पहचान ...
तुम ... न आना
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार,आदरणीय मित्र, लक्ष्मण जी
आ. भाई विजय जी, सादर अभिवादन। बहुत सुन्दर रचना हुई है । हार्दिक बधाई।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार,आदरणीया मित्र डा० गीता जी।
आदरणीय विजय निकोर जी उम्दा रचना के लिए बहुत बधाईI भावों को खुबसूरत शब्द शिल्पकारी से सजाया आपनेI
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार,आदरणीय मित्र सुशील जी।
वाह आदरणीय विजय निकोर जी बहुत ही खूबसूरत सृजन हुआ है। अंतर्मन के अंतद्वंद को आपकी कलम ने बहुत ही खूबसूरत अंजाम दिया है। इस बेहतरीन सृजन के लिए दिल से बधाई स्वीकार करें।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय भाई समर कबीर जी।
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब,बहुत उम्द: रचना हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय मित्र सुरेन्द्र जी।
आद0 विजय निकोर जी सादर अभिवादन। बेहतरीन रचना पर बधाई स्वीकार कीजिये
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