खुरच शीत को फागुन आया
फूले सहजन फूल
छोड़ मसानी चादर सूरज
चहका हो अनुकूल
गट्ठर बांधे हरियाली ने
सेंके कितने नैन
संतूरी संदेश समध का
सुन समधिन बेचैन
कुंभ-मीन में रहें सदाशय
तेज पुंज व्योमेश
मस्त मगन हो खेलें होरी
भोला मन रामेश
हर डाली पर कूक रही है
रमण-चमन की बात
पंख चुराए चुपके-चुपके
भागी सीली रात
बौराई है अमिया फिर से
मौका पा माकूल
खा *चासी की ठोकर पतझड़
फांक रही है धूल
चासी : कृषक
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय राजेश झा जी सादर, छंद सारसी में सुन्दर प्रस्तुति दी है. बहुत बढ़िया. बहुत बहुत बधाई.
खुरच शीत को फागुन आया
फूले सहजन फूल
छोड़ मसानी चादर सूरज
चहका हो अनुकूल
बहुत खूबसूरत छंद रचे है आपने आदरणीय राजेश झा जी।
सुघड़ और सुगठित छंद ...
सादर वेदिका
आदरणीय निकोर जी, आपकी उपस्थिति आनंददायक है, सादर
राजेश जी,
मनोहर छंद के लिए बधाई।
विजय निकोर
हार्दिक आभार रविकर जी
सुन्दर प्रस्तुति-
बधाई राजेश जी-
आदरणीय राजेशकुमारजी, सही कहा आपने, काव्य-प्रक्रिया वस्तुतः अनुभूत एवं आपरूप ही होती है. कोई भाव तडित-सा कौंधता हुआ उत्प्रेरण का कारण बन मन-भाव को झंकृत कर देता है और मन रचनामय हो उठता है. फिर तो उस भाव की समस्त व्यंजनाओं की कोर थामे कवि या रचनाकार सप्रयास शब्द-शिल्पादि के आकार देता है. विधा और तद्सम्बन्धी मात्रिक गणनाएँ आदि तो अवश्य ही साधन हैं ताकि रचनाएँ अन्यान्य कसौटियों पर भी श्रेष्ठ हो सकें और उनकी सुगढता इतनी प्रभावी हो कि सुधी समाज उसे उत्कृष्ट सृजन का नाम दे सके. अतः भावुक कौंध या भावुक शब्द प्रेषण मात्र नहीं, तदोपरान्त विधाओं का अनुशासन भी रचनाकर्म हेतु उतना ही आवश्यक हुआ करता है.
अतः, काव्यकर्म कथ्य को शिल्प की कसौटी पर कसना मात्र न हो कर, तथ्य के परिप्रेक्ष्य में अनुभूत विन्दुओं का सफल संप्रेषण होता है जो शिल्प की कसौटी पर सफलतापूर्वक उतरा हुआ भी हो. यही सारा कुछ समुच्चय में रचनाधर्म है.
आपकी रचनाधर्मिता प्रभावी है.. उत्तरोत्तर व्यापक हो.. . शुभ-शुभ.
सादर
वाह वाह वाह आदरणीय राजेश झा जी.. बड़ा ही मन भावन लगा ये छंद .....................सादर बधाई हो
फागुन की खूबसूरती को बहुत ही सरसता और सुन्दरता से सरसी छंद में प्रस्तुत किया है आपने आदरणीय राजेश झा जी...
इस प्रकृति की खूबसूरती से चहचहाती रचना के लिए बहुत बहुत बधाई
आदरणीय सौरभ जी, बड़े दिनों बाद आपका आशीर्वाद मिला । कृपा दृष्टि बनाए रखें । बहुत दिनों से कोशिश कर रहा था पर छंद बनने का नाम ही नहीं ले रही थी, आज प्रात: ब्रह्म मुहूर्त में कोयल की कूक से आंख खुली और जो प्रथम पंक्ति मानस पटल पर कौंधी उसी से शुरुआत की । सत्य है 'बिन हरि कृपा मिले ना संता', सादर
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