धीरे धीरे आओ चन्दा
धीरे धीरे आओ
होंठों पर मुस्कान सजाये
सोया है मृग छौना
आहट से तेरी टूटेगा
उसका ख्वाब सलोना
बात समझ भी जाओ चन्दा
धीरे धीरे आओ
तुम चलते हो पीछे पीछे
चलते हैं सब तारे
और तुम्हारी सुंदरता पर
इठलाते हैं सारे
तुम तो मत इतराओ चन्दा
धीरे धीरे आओ
ऐसे भी कुछ घर आँगन हैं
बसते जहाँ अँधेरे
भूख वहाँ करताल बजाये
संध्या और सबेरे
उस दर भी मुस्काओ चन्दा
धीरे धीरे आओ
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
स्वागत संग आभार आदरणीया रक्षिता जी...
तहेदिल से शुक्रिया आदरणीय आरिफ जी..
ऐसे भी कुछ घर आँगन हैं
बसते जहाँ अँधेरे
भूख वहाँ करताल बजाये
संध्या और सबेरे
उस दर भी मुस्काओ चन्दा
धीरे धीरे आओ
बहुत ही सुन्दर गीत आदरणीय हार्दिक बधाई
आ. भाई बृजेश जी, इस भावप्रवण रचना के लिए बहुत बहुत हार्दिक बधाई ।
आदरणीय वृजेश जी नमस्कार,
बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ ...एक लोरी की तरह !
हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
आदरणीय बृजेश कुमार जी आदाब,
बहुत ही सुंदर गीत की पेशकश । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
आपका हार्दिक अभिनदंन है आदरणीय महेंद्र जी..सादर
बढ़िया गीत है आदरणीय बृजेश जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
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