शापित यक्ष का इस प्रकार मान-मर्दन होने से उसकी महिमा घट गयी. अतः अपने निर्वासन का दंड भुगतने के लिए उसने अलकापुरी से दूर रामगिरि को अपना आश्रय स्थल बनाया. इस पर्वत पर भगवान राम ने अपने वनवास के कुछ दिन कभी काटे थे, इसीलिये वह पर्वत-प्रदेश रामगिरि कहलाता था . वहां जगजननी सीता के पवित्र स्नान कुंड थे . छायादार घने वृक्ष थे. यक्ष ने वहाँ के आश्रमों में बस्ती बनायी और प्रवास के दिन व्यतीत करने लगा. इस प्रकार प्रिया-संतप्त यक्ष ने किसी तरह आठ माह बिताये. ग्रीष्म ढल जाने पर आषाढ़ मास के पहले दिन रामगिरि की चोटी पर उसने झुके हुए मेघ को देखा जो ढूसा मारने में व्यस्त किसी मतवाले हाथी की भांति शोभित था .
यक्ष अश्रुपूरित नयनों से कुछ देर तक उस मेघ को देखता रहा. पावस की ऋतु विरही जनों के लिए सर्वाधिक दुखदायी होती है. उसने सोचा यदि इस समय वह अलकापुरी में अपनी प्रिया तक कोई सांत्वना सदेश भेज सके तो उसकी प्रिया के कोमल चित्त को शांति मिलेगी. इस विचार से संकल्पित होकर उसने कुटज के टटके फूलों से मेघ को अर्घ्य अर्पित करते हुए गदगद कंठ से उसका स्वागत करते हुए कहा – पुष्कर और आवर्त्तक नाम वाले ऐश्वर्यवान मेघों के वंशज और स्वेच्छा से अपना रूप बदल लेने वाले प्रकृति-पुरुष मैं तुम्हे जानता हूँ. मैं आपके पास एक याचना लेकर आया हूँ . हे मेघ जो संतप्त होते है उन्हें आप्यायित करना तुम्हारा धर्म भी है और स्वभाव भी. अतः कुबेर के क्रोध और शाप से संतप्त मुझ विरहाकुल का सन्देश तुम यक्षपति की प्रसिद्ध नगरी अलकापुरी तक जाकर मेरी प्रिय पत्नी तक पहुँचाने की महती कृपा करो .
कथाक्रम में आगे यक्ष कहता है कि पावस आने पर मेघों का गर्जन सुनकर कमल वनों में रहने वाले हंस अपनी चोंच में मृणाल के अग्रभाग का पाथेय लेकर स्वभाव-वश मानसरोवर तक जाने की उत्कंठा में कैलाश पर्वत तक तुम्हारा साथ देंगे. राह में एक ऐसा स्थान है, जहां बेंत के हरे पेड़ हैं . वहां से उड़ते हुए और मार्ग में अड़े दिशाओं के हाथियों के स्थूल शुंडों का आघात बचाते हुए तुम उत्तर मुख हो जाना. विशाल दावाग्नि को अपनी मूसलाधार वर्षा से शांत कर देने वाले मेघ, आगे जाने पर पके फलों से आच्छदित, हरित आम्रकूट पर्वत थकान मिटाने हेतु तुम्हारी बाट जोहता हुआ मिलेगा . वहां तनिक विश्राम कर फिर आगे बढ़ने पर विन्ध्य पर्वत के ढलानों के ऊंचे-नीचे ढोंको में बिखरी शिव-तनया नर्मदा दिखाई देंगी. आगे अधखिले केसर वाले हरे-पीले कदम्बों पर मंडराते भौंरे, कछारों में भुई-केलियो के पहले फुटाव की कलियों को टूंगते हुए हिरन और वन भूमि की सोंधी वास को सूंघते हाथी तुम्हे मार्ग की सूचना देते मिलेंगे. आकाश मार्ग पर फिर तुम्हे दशार्ण देश दिखेगा. वहां उपवनों की कटीली रौसौं पर केतकी के फूलों की नुकीली बालों से हरियाली छाई होगी. इसके साथ ही घरों में जा-जाकर राम ग्रास खाने वाले कौओं के घोसलों से गाँव के वृक्षों की चहल-पहल भी तुम्हें दिखाई देगी और भौंराले जामुन के वन सुहावने लगेंगे. दिग्दिगंत में विख्यात उस देश की विदिशा नामक राजधानी में तुम्हे पान करने के लिए वेत्रवती नदी का सुरभित जल मिलेगा. यहाँ किसी निचले पर्वत पर क्षण भर विश्राम कर लेना फिर आगे बदना. यद्यपि उत्तर-पथ तुम्हारे लिए निर्दिष्ट है तथापि थोड़ा घुमाव लेकर अवन्ति देश में जाना जहा के वयोवृद्ध उदयन की प्रेम कथाओं के गायन में प्रवीण हैं.
उदयन चन्द्रवंश का एक राजा था . इसकी प्रणय कथा को महाकवि भास ने अपनी दो रचनाओं में अम्रर कर दिया है इन रचनाओं का हम ‘स्वप्नवासवदत्ता‘ और ‘प्रतिज्ञायौगंधरायण‘ के रूप में जानते हैं .
कथानक में आगे यक्ष मेघ को मार्ग में आरूढ़यौवना की भांति मस्त निर्विन्ध्या नदी में स्नान करने का परामर्श देता है और फिर वैभव संपन्न उज्जयिनी पुरी की और प्रवृत्त करता है जो स्वर्ग का मानो एक जगमगाता टुकडा है. वह अपने मित्र से कहता है कि उज्जयिनी के महलों की ऊंची अटारियों और वहां की चंचल नारियों के साथ अवश्य विलसना . उज्जयिनी में शिप्रा नदी का पवमान खिले कमलों की गंध से महकता हुआ सारस की मधुर ध्वनि से मुखरित होकर अपने स्पर्श से लोलुप प्रियतम की भाँति वनिताओं के रतिजनित खेद को दूर करता है .
यक्ष कहता है मेघ, उज्जयिनी में फूलों से सुरभित महलो में सुन्दर नारियों के महावर लगे चरणों की छाप देखकर तुम अपनी थकान अवश्य मिटाना . चूंकि तुम्हारा कंठ भी नीला है अतः भगवान शिव से मिलती तुम्हारी इस एक शोभा के कारण शिव के गण तुम्हे आदर से देखेंगे. वहां तुम त्रिभुवन पति चंडीश्वर के पवित्र धाम में जाना. गंधवती नदी की पवित्र और चंचल जल-धारा उस स्थल पर हवाओं से क्रीडा करती है. यदि तुम महाकाल के मंदिर में समय से पहुँच गए तो भगवान शिव की संध्याकालीन आरती में तुम अपने स्वर से नगाड़ों के साथ संगत कर सकोगे. आरती के पश्चात आरम्भ होने वाले शिव के तांडव-नृत्य में तुम ताजे जवा-पुष्प की भाँति फूले हुए और संध्या का लालिमा लिए हुए वहाँ शिव के भुज-दंड रूपी कानन को घेर कर छा जाना. इससे पहला परिणाम तो यह होगा कि भगवान् शिव तुम्हारा आच्छादन पाकर रक्त से भीगा हुआ गजासुर का चरम ओढने से विरत हो जांयेंगे और इससे प्रसन्न होकर जग-जननी पावती तुम्हारी भक्ति की ओर ध्यान देंगी .
कालिदास ने ‘मेघदूत’ में उज्जयिनी का जो महिमा गायन किया है. उससे इस दिव्य पुरी के प्रति उनका लगाव प्रकट होता है. कुछ विद्वान् तो इस आधार पर इस पुरी को ही उनका जन्म स्थान मानते है. उज्जयिनी की यशोगाथा में यक्ष कहता है की हे मेघ, उज्जयिनी में रात के समय प्रियतम के भवनों को जाती हुयी कृष्ण-अभिसरिकाओं को घुप्प अँधेरे के कारण जब राजमार्ग पर कुछ सुझाई न दे तब तुम मेघ-प्रिया (बिजली ) की सहायता से कसौटी पर कसी कंचन रेखा की तरह तड़ित-प्रकाश से उनके पथ को आलोकित कर देना किन्तु गर्जन मत करना क्योंकि ये अभिसरिकाये बड़ी भीरु प्रकृति की होती हैं. इस कार्य में यदि मेघ-प्रिया थक जाए तो तुम रात किसी महल की अटारी में जहाँ कबूतर सोते हों वहां बिताना और सूर्योदय होने पर आगे की यात्रा के लिए निकल पडना .
‘मेघदूत’ के ‘पूर्वमेघ’ खंड में यक्ष ने केवल मेघ का मार्ग निर्देश किया है, ताकि दूत सकुशल ठीक उस स्थान तक पहुँच सके जहाँ उसे अपना कार्य सिद्ध करना है . मार्ग भ्रष्ट होकर कोई भी दूत सफल मनोरथ नही हो सकता. इसलिए मार्ग निर्देशन के प्रति यक्ष अत्यधिक सजग प्रतीत होता है . वह कहता है कि आगे तुम्हे गंभीरा नदी मिलेगी. तुम्हारा सुन्दर प्रतिबिम्ब उस पर पड़ेगा. फिर जब तुम देवगिरि पहुंचोगे तब वहां निरंतर निवास करने वाले शिव-पुत्र कुमार कार्तिकेय को तुम अपने शरीर को पुष्पवर्षी बनाकर आकाश गंगा के जल में भीगे हुए फूलों की बौछारों से स्नान कराना . भगवान् शिव ने देवसेनाओं की रक्षा के लिए सूर्य से भी अधिक जिस तेज को अग्नि के मुख में क्रमशः संचित किया था, वही तेज पार्वती की कोख से सरकंडों के वन में जन्म लेकर कुमार कार्तिकेय के रूप में लोक विख्यात हुआ. उस देवगिरि में अपने गर्जन-तर्जन से भगवान स्कन्द के वाहन मयूर को आनंदित करना और नचाना जिसकी आँखों के कोए शिव के चंद्रमा की चांदनी से धवलित हैं . कुमार कार्तिकेय की आराधना से निवृत होकर तुम चर्मण्वती नदी का सम्मान करने हेतु तनिक नीचे उतरना. इस नदी को पार कर तुम अपने शरीर को दशपुर की स्त्रियों की लालसा का पात्र बनाते हुए आगे जाना. इसके बाद ब्रह्मावर्त जनपद के ऊपर अपनी छाया डालते हुए क्षत्रियों के विनाश की साक्षी कुरुक्षेत्र की उस भूमि पर जाना जहाँ गांडीवधारी अर्जुन ने अपने तीक्ष्ण बाणों की वर्षा से राजाओं के मुख पर ऐसी झड़ी लगा दी थी जैसी तुम कमल-वनों पर करते हो . तदनंतर तुम उस सरस्वती के पवित्र जल का पान करना जिसका सेवन भगवान बलराम ने कौरव–पांडव दोनों से बिमुख होकर महाभारत काल में किया था. वहां से आगे ‘कनखल’ में शैलराज हिमालय से नीचे उतरती हुयी भागीरथी गंगा के समीप जाना. उसके स्फटिक जैसे स्वच्छ जल का पान करने के लिए जब तुम झुकोगे तो तुम्हारी छाया से वह धारा ऐसी सुहावनी लगेगी मानो तीर्थराज प्रयाग से दूर यह कोई नया त्रिवेणी संगम हो.
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
आ० वृजेश कुमार जी , इन ग्रंथों को लोग कम पढ़ते है पर अद्भुत हैं ये रचनाये . मैंने एक कोशिश की है परिचय कराने की .. आपका आभार .
आ० सलीम रजा साहिब , बहुत बहुत आभार .
आ० अजय तिवारी . यहाँ तो कथावस्तु मात्र है . मैंने पूरे ग्रन्थ का ककुभ छंद में भावानुवाद भी किया है . सादर .
आदरणीय गोपाल नारायण जी,
मेघदूत की बहुत अच्छी पुनर्रचना की है. दीपोत्सव की शुभकामनाएं .
सादर
आदरणीय समर कबीर साहिब , आपसे सदैव बल मिलता है , आपका आभारी हूँ . शुभ दीवाली .
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