बोझ ...
हम
कहाँ जान पाते हैं
चेतन या अवचेतन में
अटकी हुई कुंठाओं की
मूक भाषा को
उनींदी सी अवस्था में
कुछ सिमटी हुई
आशाओं को
मन में उबलते
एक असीमित बोझ की
पहचान को
साँसों की थकान
अश्रु की व्यथा
और
रुदन के आह्वान को
तुम्हारे
स्पर्श की अनुभूति में लिप्त
क्षणों की
परिणिती के आभास ने
यूँ तो
अंजाने संताप से
मुक्ति का ढाढस दिया
किन्तु
जागृति बोध से
हृदय की कंदराओं में
क्यूँ रह रह के
ये विचार आता है
कि कहीं
ये किंचित मात्र सा आभास भी
किसी स्वप्न-रेख सा
ओझल हो गया तो
शायद
जीना भी
इक बोझ
न बन जाए
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीया कल्पना भट्ट जी रचना के भावों को सहमति देती आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से आभार। अपरिहार्य कारणों से आभार व्यक्त करने में विलम्ब हेतु क्षमा प्रार्थी हूँ।
आदरणीय समर कबीर साहिब रचना के भावों को अपनी मधुर प्रशंसा से अलंकृत करने का हार्दिक आभार। अपरिहार्य कारणों से आभार व्यक्त करने में विलम्ब हेतु क्षमा प्रार्थी हूँ।
आदरणीय गिरिराज जी भाई साहिब प्रस्तुति के भावों मान देती आपकी स्नेहिल प्रशंसा का दिल से आभार। अपरिहार्य कारणों से आभार व्यक्त करने में विलम्ब हेतु क्षमा प्रार्थी हूँ।
आदरनीय सुशील भाई , एक् और अच्छी कविता के लिये आपको हार्दिक बधाई ।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी प्रस्तुति को अपनी मधुर प्रतिक्रिया से अलंकृत करने का हार्दिक आभार।
आदरणीय Mohammed Arif साहिब प्रस्तुति में निहित भावों को सहमति देती आपकी प्रशंसात्मक प्रतिक्रिया का दिल शुक्रिया।
आदरणीय narendrasinh chauhan जी प्रस्तुति को आत्मीय मान देने का हार्दिक आभार।
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