पागल मन ..... (400 वीं कृति )
एक
लम्बे अंतराल के बाद
एक परिचित आभास
अजनबी अहसास
अंतस के पृष्ठों पे
जवाबों में उलझा
प्रश्नों का मेला
एकाकार के बाद भी
क्यूँ रहता है
आखिर
ये
पागल मन
अकेला
तुम भी न छुपा सकी
मैं भी न छुपा सका
हृदय प्रीत के
अनबोले से शब्द
स्मृतियाँ
नैन घनों से
तरल हो
अवसन्न से अधरों पर
क्या रुकी कि
मधुपल का हर पल
जीवित हो उठा
मन हस पड़ा
साथ
आभास हो गया
और आभास
सदा का
साथ हो गया
स्मृतियाँ
अंश हो गई
एकाकी जीवन की
न जाने
किसकी श्वासों से
अपनी श्वासों को
प्राण देने का
प्रयास कर रह है
ये
पागल मन
अकेला
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सुशील सरना जी बेहतरीन सुसज्जित रचना के लिए हार्दिक बधाई
आदरणीय खूब सुन्दर रचना
आ. भाई सुशील जी, सुंदर कविता हुयी है । हार्दिक बधाई ।
जनाब सुशील सरना जी आदाब,अच्छी कविता हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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