दिल मेरा फिर से सितमगर तलाश करता है।
आईना जैसे के पत्थर तलाश करता है॥
एक दो क़तरे से ये प्यास बुझ नहीं सकती,
दिल मेरा अब तो समंदर तलाश करता है॥
तेरी धड़कन तेरी हर सांस में छुपा है वो,
आजकल जिसको तू बाहर तलाश करता है॥
जाने किस बात से नाराज़ है मेरा दिलबर,
लेके पत्थर जो मेरा सर तलाश करता है॥
छोडकर मुझको तड़पता हुआ अकेले में,
वो किसी और का बिस्तर तलाश करता है॥
चैन जो दिन का चुराता है नींद रातों की,
दिल उसे ख़्वाबों में अक्सर तलाश करता है॥
अपने हाथों की लकीरों को देखकर मुफ़लिस,
रात दिन अपना मुकद्दर तलाश करता है॥
हरसू मिलती है बहुत भूक बेबसी तंगी,
जब ग़रीबों का कोई घर तलाश करता है॥
खिड़कियाँ खोल के बाहर नहीं देखा “सूरज”
धूप को कमरे के अंदर तलाश करता है॥
डॉ. सूर्या बाली “सूरज”
Comment
जाने किस बात से नाराज़ है मेरा दिलबर,
लेके पत्थर जो मेरा सर तलाश करता है॥
वाह बाली साहिब वाह, बहुत ही दिलकश ग़ज़ल कही है , दाद कुबूल करें श्रीमान |
आदरणीय बाली जी
नमस्कार,
अपने हाथों की लकीरों को देखकर मुफ़लिस,
रात दिन अपना मुकद्दर तलाश करता है॥
बहुत सुन्दर शायरी. कुछ शेर तो दिल को छू लेते हैं. हार्दिक बधाई.
खिड़कियाँ खोल के बाहर नहीं देखा “सूरज”
धूप को कमरे के अंदर तलाश करता है॥
saare ke saare sher gajab
badhai.
क्या कहा है आपने डा. सूर्या बाली जी ! मतले से मक्ते तक अपने जो ऊँचाई बनाये रखी है, कि दिल खुल कर वाह-वाह करता जा रह है. किस एक शे’र की बात करूँ ?
फिरभी, कुछ शेर को बिना दुहराये नहीं रह पा रहा हूँ. निम्नलिखित शेर भावविभोर कर गये.
एक दो क़तरे से ये प्यास बुझ नहीं सकती,
दिल मेरा अब तो समंदर तलाश करता है॥
तेरी धड़कन तेरी हर सांस में छुपा है वो,
आजकल जिसको तू बाहर तलाश करता है॥
जाने किस बात से नाराज़ है मेरा दिलबर,
लेके पत्थर जो मेरा सर तलाश करता है॥
अपने हाथों की लकीरों को देखकर मुफ़लिस,
रात दिन अपना मुकद्दर तलाश करता है॥
खिड़कियाँ खोल के बाहर नहीं देखा “सूरज”
धूप को कमरे के अंदर तलाश करता है॥
इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिये हृदय से बधाइयाँ स्वीकारें, साहब !
kya hahun sooraj bhai tareef ke liye alfaz nahin mil rahe hain ek ek sher me waaqai me apne shayri ki hai wah...................................wah dad kubool karein
अपने हाथों की लकीरों को देखकर मुफ़लिस,
रात दिन अपना मुकद्दर तलाश करता है॥
हरसू मिलती है बहुत भूक बेबसी तंगी,
जब ग़रीबों का कोई घर तलाश करता है॥
क्या बात है आदरणीय श्री डॉ. बाली जी ! एक एक अल्फाज़ , एक एक अश'आर खूब सूरत !
अपने हाथों की लकीरों को देखकर मुफ़लिस,
रात दिन अपना मुकद्दर तलाश करता है॥
खिड़कियाँ खोल के बाहर नहीं देखा “सूरज”
धूप को कमरे के अंदर तलाश करता है॥
डा . सूर्या बाली जी बहुत उम्दा ग़ज़ल लिखी है आपने सभी शेर खूबसूरत हैं पर इनदोनो के लिए विशेष दाद कबूल करें
खिड़कियाँ खोल के बाहर नहीं देखा “सूरज”
धूप को कमरे के अंदर तलाश करता है॥
bahut sunder ghazal suraj ji
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