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वेदना संवेदना अपाटव कपट
को त्याग बढ़ चली हूँ मैं
हर तिमिर की आहटों का पथ
बदल अब ना रुकी हूँ मैं
साथ दो न प्राण लो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।

निश्चल हृदय की वेदना को
छुपते हुए क्यों ले चली मैं
प्राण ये चंचल अलौकिक
सोचते तुझको प्रतिदिन
आह विरह का त्यजन कर
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।

अपरिमित अजेय का पल
मृदुल मन में ले चली मैं
तुम हो दीपक जलो प्रतिपल
प्रकाश गौरव  बन चलो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।

मौन कर हर वितथ पनघट
साथ नौका की धार ले चली मैं
मृत्यु की परछाई में सुने हर
पथ की आस ले चली मैं
दूर से ही साथ दो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।

--- दीप्ति शर्मा

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प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 5, 2012 at 5:02pm

बेहद भावपूर्ण कविता और सुन्दर शब्द संयोजन, बधाई स्वीकारें दीप्ती जी.

Comment by Raj Tomar on July 5, 2012 at 3:45pm

"अपरिमित अजेय का पल
मृदुल मन में ले चली मैं
तुम हो दीपक जलो प्रतिपल
प्रकाश सौरभ बन चलो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।"

 

अहा, बहुत ही शानदार..:)

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 5, 2012 at 1:08pm

बढ़ चली हूँ मैं,हर तिमिर की आहटों का पथबदल, अब ना रुकी हूँ मैं

अपरिमित अजेय का पल,मृदुल मन में ले चली मैं |
दीप्तिजी,"अपरिमित अजेय का पल लिए औ हर तिमिर की आहटों का पथबदलते
हुए चलते चलो तुम बढ़ाते चलो तुम, न रोकेंगा तुमको प्राण प्रिये, 
विकास का मार्ग अवरुद्ध करने का नहीं इरादा,कहता प्राण प्रिये |"
इतने सुन्दर भावो के इतने गूढ़ शब्दों के साथ प्रस्तुति के लिए हर्द्किक बधाई   
Comment by Rekha Joshi on July 5, 2012 at 10:59am

दीप्ति जी ,

मौन कर हर विपट पनघट
साथ नौका की धार ले चली मैं
मृत्यु की परछाई में सुने हर
पथ की आस ले चली मैं
दूर से ही साथ दो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।,अति सुंदर पंक्तियाँ ,बधाई 
Comment by अरुन 'अनन्त' on July 5, 2012 at 10:41am

बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ !!!!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 5, 2012 at 10:29am

दीप्ति जी मैं आपको ओ बी ओ पर भी देखकर बहुत हर्षित हुई एक सकारात्मक सोच से भरे हुए नारी के मनोभावों का सुन्दर चित्रण है इस कविता में बहुत सुन्दर लगी बधाई 

Comment by Yogi Saraswat on July 5, 2012 at 10:09am

अपरिमित अजेय का पल
मृदुल मन में ले चली मैं
तुम हो दीपक जलो प्रतिपल
प्रकाश सौरभ बन चलो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।

एक स्त्री के मन के विश्वास को व्यक्त करती हुईं बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ , दीप्ति शर्मा जी ! बधाई

Comment by Harish Bhatt on July 5, 2012 at 9:47am

दीप्ति जी नमस्‍ते बहुत सुंदर कविता के लिए हार्दिक बधाई

मौन कर हर विपट पनघट
साथ नौका की धार ले चली मैं
मृत्यु की परछाई में सुने हर
पथ की आस ले चली मैं
दूर से ही साथ दो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 5, 2012 at 9:35am
भाव प्रधान, सकारात्मक सोच की पूर्णता से ओतप्रोत, सुन्दर रचना के लिए  प्रिय दीप्ति जी आपको हार्दिक बधाई. 

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